मिल्खा सिंह जब बोले, सरहद पर खड़े जवानों की मैं सबसे ज्यादा इज्जत करता हूं

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मिल्खा सिंह
मिल्खा सिंह

90 वर्ष की उम्र में भारत जैसे देश का “यूथ आइकन” होना कोई मजाक नहीं है. जिंदादिल उड़न सिख मिल्खा सिंह उन चुनिंदा शख्सियतों में से थे जो आने वाली पीढ़ी को लंबे समय तक अपनी सफलता और जुझारूपन से प्रेरित करते रहेंगे. वह कहते भी थे कि कड़ी मेहनत और लक्ष्य के प्रति जज्बे का कोई विकल्प नहीं है. 15-16 दिसंबर 2018 को जब उनसे मुलाकात हुई, उसमें एक शेर मिल्खा जी ने कई बार पूरी शिद़दत से सुनाया वह ये था…

“हाथ की लकीरों से जिन्दगी नहीं बनती,
अजम हमारा भी कुछ हिस्सा है जिन्दगी बनाने में.”

इसका मतलब वह यूं समझाते थे कि संकल्प शक्ति, अनुशासन और कड़ी मेहनत में गजब की ताकत होती है, जिस इंसान में ये है, वह जमीन से उठकर आसमान छू सकता है. उनका ये कहना कि “ मैं सेल्फमेड आदमी हूं इसलिए इसे ज्यादा मानता हूं” कोई गर्वोक्ति नहीं थी बल्कि सच से सामना करने जैसा था.

मिल्खा सिंह
मिल्खा सिंह

“मां−बाप मेरी आँखों के सामने ही कत्ल कर दिए गए”

लखनऊ में एक्सीलिया स्कूल के कार्यक्रम में अपने ऊपर फिल्म के कुछ दृश्य को देखकर जब वह भावुक हुए तो बोले मैं जिन्दगी में दो−तीन बार ही रोया हूं पहली बार जब मेरे मां−बाप देश के बंटवारे के दौरान मेरी आँखों के सामने कत्ल कर दिए गए. उस दिन को जब भी याद करता हूं तो आज भी दर्द से भर उठता हूं. “पार्टीशन” का दर्द मैंने सहा है, आप लोगों ने तो सिर्फ नाम ही सुना होगा या कहानी सुनी होगी.

“लाशें तक उठाने वाला कोई नहीं था”

उन्होंने बताया कि“पार्टीशन” के दौरान न रोटी खाने को थी न कपड़ा पहनने को, बस दिल्ली के सिटी रेलवे स्टेशन के सामने पड़ा था. लोग आते थे, रोटी फेंकते थे, जिसे मिल गयी वह खा लेता था और बाकी भूखे वैसे ही किनारे पड़े रहते थे. लाशें जहां−तहां पड़ी हुर्इं थीं कोर्इ उठाने वाला नहीं था. पाकिस्तान से इतनी शरणार्थी आ रहे थे कि कुछ भी नहीं हो पा रहा था. बोले, ये बताने का मकसद ये है कि सोचो मैं कहां था और क्या स्थिति थी. इसलिए हमें हार नहीं माननी चाहिए.

“दूसरी बार मैं रोम ओलंपिक में रोया”

मिल्खा जी ने कहा, दूसरी बार जब मैं रोम आलंपिक में पदक लेने से चूक गया तो उस रात मैं बहुत रोया. सारे देश की उम्मीदें मुझ से थी, दुनिया भर के लोग ये सोच रहे थे कि जीतेगा तो मिल्खा ही, पर ये मेरी और हिन्दुस्तान की “बैडलक” रही. इसलिए मेरी खवाहिश है कि मैं दुनिया छोड़ने से पहले किसी भारतीय को एथलेटिक में ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतते हुए देखना चाहता हूं. उनका कहना था कि मैं समारोहों में भाग ही इसीलिए लेता हूं कि जाने मेरी कौन सी बात किसी नौजवान में चिंगारी जगा जाए और मेरा सपना पूरा हो जाए.

मिल्खा सिंह
मिल्खा सिंह (बीच में) बाएं हाकी के जादूगर मेजर ध्यान चंद और विश्व विख्यात पहलवान दारा सिंह. (फाइल)

“रगड़ा लगते ही भाग खड़े होते हैं बच्चे”

ऑडी से लखनऊ का नजारा लेते वक़्त उनकी गहरी सांस का मतलब भी काफी गहरा था, जब उन्होंने कहा, “वैसे मेरे पास हजारों बच्चे आते हैं, फोटो खिंचाते हैं मगर जब चार दिन रगड़ा लगता है तो सब भाग खड़े होते हैं.” वह कहते रहे एथलेटिक में जितना काम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ. हॉकी में भी हम पिछड़ गए, एक जमाना था कि सारी दुनिया को हॉकी हमने सिखाई मगर अब हम क्वालिफाई करने के लिए जूझ रहे होते हैं. मेजर ध्यानचंद जैसे खिलाड़ी देने वाले देश के लिए ये स्थिति ठीक नहीं है. उन्होंने बताया कि मेजर ध्यानचंद जी उन्हें बताया करते थे कि साइकिल के टायर को गोल पोस्ट बनाकर वह 500 गेंदें लेकर आगे−पीछे, सामने, दाएं−बाएं से गोल करने की प्रैक्टिस किया करते थे. उन्होंने सवाल दागा क्या अब ऐसा जज्बा नहीं है.

“हम दूसरा मिल्खा सिंह पैदा नहीं कर पाए”

फिर भी फ्लाइंग सिख निराश नहीं थे बोले, शूटिंग, कुश्ती, बैडमिंटन में स्थिति बदली है, एथलेटिक में भी जरूर बदलाव आयेगा. आज के युवाओं को समझना चाहिए कि हमने तिरंगा विदेशों में जाकर तब लहराया जब संसाधन नहीं थे, मैं नंगे पैर दौड़ा करता था, रनिंग शूज हिन्दुस्तान में बनते ही नहीं थे, ट्रैक सूट हम जानते ही नहीं थे. आर्मी की ग्रीन जर्सी और ग्रीन पैन्ट पहनकर हम दौड़ा करते थे, कोच नहीं हुआ करते थे इसलिए तब और अब का फर्क आना चाहिए. एथलेटिक का स्टैन्डर्ड बढ़ना चाहिए. 60 साल पहले रोम अलंपिक में हुर्इ चूक की कसक अब तक मेरे दिल में हैं. तबसे हम दूसरा मिल्खा सिंह पैदा नहीं कर पाए इसलिए मैं दुनिया छोड़ने से पहले ओलंपिक में किसी भारतीय एथलीट को तिरंगा लहराते और जन−गण−मन… बजते हुए देखना चाहता हूं.

मिल्खा सिंह
फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह

सरहद पर खड़े जवानों को सलाम

उन्होंने बताया कि मैं अनेक बार मरने की कगार तक पहुंचा, पता नहीं कितनी बार ऑक्सीजन लगी, खून की उल्टियां कीं, लोगों को लगा कि मिल्खा अब खत्म पर मैंने वापसी की. हार न मानने की जिद और कुछ कर गुजरने का माद्दा मुझसे वह सब कराता रहा, जिससे मैं कुछ कर पाया. इसीलिए संकल्प के धनी खिलाड़ियों और सरहद पर खड़े जवानों की मैं सबसे ज्यादा इज्जत करता हूं. आप लोगों को भी कभी बार्डर पर जाना चाहिए, तब जान पायेंगे कि देश की हिफाजत के लिए किस तरह फौजी अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं.

मिल्खा सिंह
मिल्खा सिंह

“हिन्दी बोलने में संकोच कैसा”

एक बात पर मिल्खा सिंह विशेष तौर पर जोर देते थे वह कि भारत के लोगों को हिन्दी बोलने में संकोच नहीं होना चाहिए, भले ही अंग्रेजी बोलने का चलन बढ़ गया हो. उन्होंने बताया कि मैं दुनिया में जहां कहीं भी जाता हूं वहां हिन्दी में ही इंटरव्यू देता हूं. आखिर जापानी हों या रूसी, जर्मनी हो या चीनी सबने अपनी भाषा में ही तरक्की की है, उनके नागरिक भारत में भी आते हैं तो अपनी भाषा में ही बात करते हैं फिर हमें शर्म क्यों. इन देशों ने तरक्की की नई मिसाल तैयार की है इसलिए हमें भी अपनी भारतीयता और भाषा पर गर्व करना चाहिए.

पत्नी के जाते ही हमेशा के लिए उड़ गया फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह