अव्वल थे और नंबर -1 ही बने जान देने के बाद भी कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया

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कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया.
“मैं हमला करने जा रहा हूँ. मैं पक्का जीतकर लौटूंगा” ये वो आखिरी वो वाक्य था जो कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया के, जो रेडियो सेट पर तब सुने गये जब विदेशी धरती पर सशस्त्र बागियों और उनके समर्थन करने वाली सेना से वो भिड़ने चले थे. यहाँ उन्हीं कैप्टन सलारिया का ज़िक्र किया गया है जिनके परिवार से मिलने के लिए भारतीय सेना के मुखिया जनरल बिपिन रावत शुक्रवार को पठानकोट में उनके घर गये थे.
कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया के भाई सुखदेव सिंह सलारिया से मिले जनरल बिपिन रावत. इनसेट में कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया की फोटो.

इस तरह नम्बर एक :

भारतीय सेना की गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया जिस तरह जीवित रहते सेना में नम्बर एक रहे वैसे ही अपना बलिदान देने के बाद भी नम्बर वन (No . 1) ही रहेंगे. राष्ट्रीय रक्षा एकेडमी के सबसे पहले पूर्व छात्र और भारत के पहले कमीशंड अधिकारी कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया संयुक्त राष्ट्र शान्ति सेना के पहले ऐसे सैनिक थे जिन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित (मरणोपरान्त) किया गया. शान्ति सैनिक के अधिकारी के तौर पर इस तरह का सम्मान अभी तक किसी और अधिकारी को नहीं मिला.

कांगो की आज़ादी :

ये 60 के दशक की शुरुआत की बात है जब अफ़्रीकी देश कांगो को बेल्जियम से नई-नई आज़ादी मिली थी लेकिन जल्दी ही वहां की सेना में बगावत हो गई. काले गोरे का रंगभेद हिंसक संघर्ष में बदल चुका था. बेल्जियम ने देश छोड़कर भाग रहे गोरे नागरिकों के समर्थन में सेना भेजी. ऐसे हालात में कांगो की नई सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से मदद मांगी जिसके जवाब में 14 जुलाई 1960 को बहुराष्ट्रीय शान्ति सेना और सहायक मिशन भेजने का फैसला लिया गया. कुछ महीने बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्र की इस सेना में अपने योगदान के तौर पर ब्रिगेडियर के. ए. एस. राजा के नेतृत्व में 99 इन्फेंटरी ब्रिगेड के 3000 जवान काँगो भेजे थे.

भयानक हालात :

इस हिंसक संघर्ष के दौरान बागियों के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के दो अधिकारियों को भी बंधक बना लिया. हालांकि बाद में उन्हें तो रिहा कर दिया गया था लेकिन 1 गोरखा राइफल्स के बंधक बनाये गये मेजर अजीत सिंह और उनके ड्राइवर की हत्या कर दी गई थी.

ऐसे हुआ युद्ध :

कांगो में हालात बहुत खराब थे. बागियों ने रास्ते बंद कर दिए थे ताकि संयुक्त राष्ट्र की सेना का आपसी सम्पर्क भी कटा रहे. हवाई अड्डे का रास्ता भी बंद था. तब संयुक्त राष्ट्र सेना ने ऑपरेशन ऊनोकोट छेड़ा. इसी ऑपरेशन के तहत सामरिक महत्व के इस रास्ते के चौराहे को खाली कराया जाना था जिस पर करीब 150 हथियारधारियों का कब्ज़ा था जिनके पास दो बख्तरबंद वाहन थे. इस ऑपरेशन के प्लान के तहत मेजर गोविन्द शर्मा के नेतृत्व वाली चार्ली कम्पनी को पहले हमला करना था. कैप्टन सलारिया के नेतृत्त्व वाली अल्फ़ा कम्पनी की पलटन को हथियारबंद को घेरना था और ज़रूरत पड़ने पर हमला करना था.

खुकरी के दम पर हमला :

दोपहर में होने वाले इस ऑपरेशन के तहत कुछ असमंजस के हालात भी पैदा हुये. लेकिन इसी दौरान कैप्टन गुरबचन सलारिया संख्या में दुश्मन से एक चौथाई से भी कम होते हुए ‘आयो गोरखाली’ चिल्लाकर खुकरी के बूते साथियों को लेकर दुश्मन पर टूट पड़े. आमने सामने के युद्ध में उन्होंने 40 को मार डाला. इस लड़ाई के अंतिम दौर में उन्हें गर्दन में दो गोलियां लगी जो किसी आटोमेटिक हथियार से दागी गईं थीं. कैप्टन सलारिया का काफी खून बहा उन्हें जल्दी से वहां से चिकित्सा सहायता के लिए ले जाया गया लेकिन हवाई अड्डे तक पहुँचने के रास्ते में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए. लेकिन इस घटना ने पूरे आपरेशन में सबसे अहम भूमिका निभाई और बागियों को खदेड़ रास्ता खाली कराया जा सका. ये तारीख थी 5 दिसम्बर 1961.

कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया का जीवन :

कैप्टन सलारिया के पिता मुंशीराम भी फौजी थे. वे ब्रिटिश इन्डियन आर्मी की हडसन हॉर्स की डोगरा स्क्वाड्रन में थे. सैनिक पिता की सुनाई सेना की कहानियों – किस्सों से प्रेरित होकर गुरबचन सिंह सलारिया ने भी सेना का हिस्सा बनकर उसकी सेवा करने का मन बनाया था. 29 नवम्बर 1935 में पंजाब के शंकरगढ़ (वर्तमान में पाकिस्तान का क्षेत्र) के पास जन्वाल गाँव में पैदा हुए गुरबचन सिंह पांच भाई बहनों में बड़े थे. बंटवारे के बाद सलारिया परिवार भारत के हिस्से वाले पंजाब के गुरदासपुर आ बसा था.

गाँव के स्कूल में पढ़ने के बाद उनका 1946 में दाखिला किंग जॉर्ज रॉयल मिलिटरी कॉलेज,बेंगलोर (अब राष्ट्रीय मिलिटरी स्कूल) में कराया गया लेकिन अगस्त 1947 में उन्हें किंग जॉर्ज रॉयल मिलिटरी कॉलेज, जलंधर भेज दिया गया. वहां से पास होते ही उन्हें नेशनल डिफेन्स एकेडमी (एनडीए) के संयुक्त सेवा विंग में भर्ती होने का मौका मिला. 1956 में एनडीए से स्नातक होने के बाद उन्होंने 1957 में आईएमए से शिक्षा पूरी की. शुरू में उन्हें 3 गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन में कमीशन दिया गया लेकिन 1960 में 1 गोरखा की तीसरी बटालियन में ट्रांसफर किया गया.

सेनाध्यक्ष जनरल रावत परमवीर चक्र से सम्मानित शहीद कैप्टन सलारिया के परिवार से मिले