भारतीय सेना के इस रिटायर्ड कैप्टन की हरियाणा में दास्तान क्या कोई सुनेगा

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ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
मेडल के साथ ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद.

उम्र 75 साल ..! ब्लड प्रेशर ने अपना शिकार बनाया .. दिल का दौरा पड़ा तो डॉक्टरों ने एंजियोप्लास्टी कर दी ..स्टेंट डाल दिया.. दिल ने फिर काम करना शुरू कर दिया लेकिन गठिया रोग ने चाल धीमी कर दी .. कानों से सुनाई देना कम हो गया .. साथ ही वज़न भी और बढ़ गया . इसके बावजूद ये फौजी एक जंग लड़ रहा है. 1994 तक सेना की वर्दी पहनकर हमेशा मातृभूमि के लिए जंग के मैदान की तैयारी में मुस्तैद रहने वाले इस फौजी को अब अलग तरह से युद्ध लड़ना पड़ रहा है. फर्क दो तरह का है. इस बार न तो वर्दी है और न ही सामने वैसा दुश्मन है. लड़ाई में इस बार सामना है उस सिस्टम से जिसकी पेचीदगियों ने इसकी ऐसी चक्करघिन्नी बनाकर रखी हुई है कि सुदूर पूर्वोत्तर से लेकर हिमालय की खतरनाक पहाड़ियों से भी सिर चकराने की तकलीफ उसके सामने शरमा जाए. जवानी के बाद उम्र के इस पड़ाव पर जीवनयुद्ध लड़ रहे भारतीय सेना से ऑनरेरी कैप्टन (honorary captain) के तौर पर रिटायर हुए ये फौजी हैं प्रेम चंद.

हिमाचल प्रदेश से सटे हरियाणा के पहाड़ी इलाके मोरनी हिल्स (morni hills) के गजान गांव में रहने वाले प्रेम चंद को पता ही नहीं चला कि 1966 में सेना की वर्दी पहनने के बाद 28 साल कब बीत गये. लेकिन प्रेमचंद जब भारतीय सेना की वर्दी पहनकर गर्म तपते रेगिस्तान से लेकर लदाख जैसे बर्फीले पहाड़ों में सैनिकों को रसद पहुंचा रहे थे तब उनके घर की दीवारों की नींव कमज़ोर पड़ती जा रही थी. उनको मामूली सा अंदाज़ा तक नहीं था कि गजान गांव में गैर मौजूदगी, दुश्मन बने अपनों को ही ऐसी लैंड माइंस (landmines – बारूदी सुरंगें) बिछाने का मौका दे रही थी कि जिसे खोजने और निष्क्रिय करने में उनकी पूरी जिंदगी ही निकल जायेगी.

ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
अपने घर में कैप्टन प्रेम चंद

मेडल भुला देते हैं दर्द :

आईटीआई से फिटर का कोर्स करते वक्त सेना में भर्ती होने के पहले प्रयास में विफल हुए प्रेमचंद की आखिर दूसरी कोशिश रंग ले आई. अपने कुनबे में वो पहले ऐसे नौजवान हुए जो फौजी बने. प्रेमचंद 1966 में भारतीय सेना की आर्मी सप्लाई कोर (army supply corps – ASC) में भर्ती हुए. खतरनाक इलाके हों, अग्रिम मोर्चों से लेकर युद्ध के मैदान तक में सैनिकों को हर हाल में और जोखिम तक उठाकर रसद और साज़ो सामान पहुँचाना उनका काम था. सेना को इस सेवा को उन्होंने बखूबी किया जिसके सबूत हैं उनकी वर्दी, तरक्की और वक्त वक्त पर मेडल के तौर पर मिलता रहा सम्मान. बड़े ही जतन से सम्भाल कर किसी सन्दूक और अलमारी में रखे उनके मेडल का जब ज़िक्र आता है तो अपनी तमाम मौजूदा तकलीफें भुलाकर वो बेटे नारायण दत्त को आदेश देते हैं कि उनको निकालकर लाये. पिता के रखे मेडल और कुछ पुराने दस्तावेज़ नारायण दत्त नहीं खोज पाते तो प्रेमचंद के भीतर शिथिल पड़ा सैनिक जोश मारता है और प्रेमचंद झट से उन मेडल को ले आते है. सीने पर बरसों पुराने मेडल लगते ही वो अपने बुजुर्गों की खरीदी जमीन के उस किस्से को मानो भूल ही गए जिस पर उनके बेटे अब खेती तो करते हैं लेकिन दस्तावेज़ में गड़बड़ी के कारण उस ज़मीन के बड़े हिस्से का उनको मालिक नहीं कहा जा सकता.

ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
कैप्टन प्रेम चंद रक्षकन्यूज.इन के संपादक संजय वोहरा के साथ.

ज़मीन का चक्कर :

बंटवारे में मिली इस 6 बीघा ज़मीन के दस्तावेज़ के बारे में उनको जानकारी थी ही नहीं. कुछ साल बाद जब कागज़ात देखे गये तो पता चला कि जो ज़मीन उनके हिस्से में आई या यूं कहें कि बंटवारे में उनको दी गई उसका तो बमुश्किल 20 फ़ीसदी हिस्सा ही उनके नाम पर है. प्रेमचंद कहते हैं कि राजस्व विभाग और भूमि सम्बन्धी महकमों की गलती की वजह से दस्तावेज़ में हुई गड़बड़ी ठीक कराने के लिए मोरनी से लेकर पंचकुला तक के कई दफ्तरों के चक्कर लगाकर वो थक गये तो कोर्ट की शरण में गये. इतना ही नहीं अदालत ने उनके पक्ष में फैसला नहीं दिया तो उन्होंने उस फैसले के खिलाफ अपील दायर की है. अभी ये केस चल रहा है.

ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
कैप्टन प्रेम चंद अपनी कहानी सुनाते हुए.

परिवार की अनदेखी का मलाल :

रिटायर्ड कैप्टन प्रेमचंद खुद को इस बात का मलाल है कि वो अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा और परवरिश पर उतना ध्यान नहीं दे सके जितना देना चहिये. वजह साफ़ थी – सेना की सेवा जिसमें रहते हुए तकरीबन पूरा देश ही घूम लिया. कभी राजस्थान में तैनाती तो कभी नगालैंड से असम, तो कभी पंजाब. ऐसे में परिवार पहले तो माँ बाप के हवाले और फिर तीन भाइयों के भरोसे छोड़ा हुआ था. चार बेटों में से एक टीचर है जो किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाता है. बाकी ज्यादा पढ़ लिख नहीं सके. वो खेतीबाड़ी करते हैं. गांव के मुहाने पर सड़क पर चाय नाश्ते की एक छोटी सी दुकान और उसके बगल में गेस्ट हाउस भी है. यहीं उनके बेटे और एक पोते से अपनी मुलाक़ात हुई थी. इस रास्ते से टिक्कर ताल (tikkartaal ) जाने वाले टूरिस्ट गुजरते हैं. यहां से तकरीबन पांच किलोमीटर के फासले पर पहाड़ियों से घिरा टिक्कर ताल एक खूबसूरत पिकनिक स्पॉट है.

ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
जब फौज में थे प्रेम चंद जी. यह फोटो उन्हीं के अलबम से है.

जब डकोटा से सप्लाई ड्रॉप की :

सैनिक जीवन में अनुशासन का तत्व रिटायर्ड सैनिक प्रेमचंद को सबसे अच्छा पक्ष लगता है. यूं तो सैन्य जीवन में प्रेमचन्द ने अलग अलग पोस्टिंग के दौरान अलग अलग तरह के माहौल और चुनौतियों के बीच काम किया लेकिन पूर्वोतर में जोरहाट, डिब्रूगढ़, नगालैंड में बिताया समय के कुछ दिलचस्प क्षण उन्हें अब भी रोमांचित करते हैं. इन्हीं में से उस घटना का भी वो ज़िक्र करते हैं जब नगालैंड में डकोटा विमान से सप्लाई के पैकेट एयर ड्रॉप किये थे. फौजी प्रेमचंद तब पहली बार किसी विमान में सवार हुए थे. जंगलों से घिरा दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र जहां सड़क तक नहीं थी या जहां किसी भी तरह की गाड़ी से पहुंचना मुमकिन नहीं था. वहां हवाई जहाज़ की नीची उड़ान से ही सैनिकों को रसद और अन्य सामान पहुँचाया जाता था. सेना में यहां नई नई पोस्टिंग के दिनों के भय और रोमांच के पल थे जिसे वे विस्तार से बताते हैं. विमान को पायलट ज्यादा से ज्यादा नीचे लेकर आता था ताकि सामान के पैकेट सही और सुरक्षित जगह पर गिराए जा सकें. सामान को ड्रॉप करने की प्रक्रिया में पांच लोगों का क्रू (crew ) लगाया जाता था. जब जब भी विमान का दरवाज़ा खुलता तब तब चुनौती दिखाई देती थी. स्वाभाविक है कि उड़ते विमान के खुले गेट के पास खड़े होकर सामान को नीचे गिराना अलग तरह के भय और रोमांच की अनुभूति वाले पल होते हैं.

ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद
ऑनरेरी कैप्टन प्रेम चंद का परिचय पत्र

पाकिस्तान में घुसे :

ऐसे ही पलों के तौर पर, 1971 में भारत पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के दिनों की याद भी उनके जहन में पक्के से छपी हुई है. युद्ध दिसम्बर 1971 में हुआ था लेकिन नवंबर में ही उनकी यूनिट को मध्य प्रदेश के सागर से पठानकोट और फिर गुरदासपुर बुला लिया गया था जो पाकिस्तान से सटा पंजाब का बॉर्डर है. प्रेमचंद बताते हैं कि युद्ध शुरू होते ही भारतीय सेना पाकिस्तान की सीमा में घुसते चली गई. भारतीय सेना की इस इकाई ने वहां लम्बे समय तक शकरगढ़ के पास नैना कोट में एक स्कूल की खाली इमारत में डेरा डाले रखा. अचानक अपनी याददाश्त की कमज़ोरी का हवाला देते हुए प्रेम चंद कहते है, ‘मेरे ख्याल से हमने वहां 1973 तक डेरा डाले रखा था’.

निश्चिन्त होने की इच्छा :

लेकिन अपने बच्चों को सेवानिवृत्त फौजी प्रेमचंद ने सेना में भर्ती कराने की कोशिश नहीं की और न ही उनके बेटों ने इस दिशा में कदम बढ़ाया. इस बारे में बात करने पर प्रेमचंद खामोश हो जाते हैं. बस इतना ही कहते कि जो जिसके भविष्य में लिखा हो …! पूरी जिंदगी सेना की सेवा करते करते परिवार को नजरंदाज़ करने की उनकी पीड़ा बातचीत के दौरान कभी कभी उभर आती थी. कुछ साल पहले बीमारी के कारण उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था. बहू बेटे अब उनकी सेवा करते हैं. प्रेम चंद बस यही चाहते हैं कि उनके रहते उनकी ज़मीन का मसला सुलझ जाए तो निश्चिन्त हो जाएंगे.