परमवीर चक्र से सम्मानित कैप्टन बाना सिंह ने साझा किया सियाचिन का सच और दिल का दर्द

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कैप्टन बाना सिंह
कैप्टन बाना सिंह

दुनिया के सबसे ऊँचे और सर्द जंग के मैदान में अपनी सुझबुझ, साहस और पराक्रम के बूते दुश्मन को मार भगाने वाले बाना सिंह अपने एक हाथ से दूसरे को दबाते हुए और साथ ही पैरों की उंगलियों व तलवे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, “अब तक इनमें दर्द महसूस होता है, सर्दियों में तो और बढ़ जाता है.” 73 साल की उम्र में जब कोई भारतीय जिस्म के किसी अंग में दर्द होने की बात कहे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए लेकिन बाना सिंह जिस दर्द को बयान कर रहे थे वो हैरानी पैदा करने वाला ही था. असल में ये दर्द बढ़ती उम्र का नहीं, जवानी के दिनों के उस कारनामे की देन है जिसके बूते पर उन्होंने भारत में शूरवीरता का सबसे बड़ा तमगा हासिल किया – परमवीर चक्र ..!

ये सच में हैरान कर देने वाली है क्योंकि दुश्मन से वो मोर्चा उन्होंने 34 साल पहले यानि 1987 में सियाचिन ग्लेशियर में फतेह किया था. इसके लिए उन्होंने अपने चार साथियों के साथ तकरीबन 90 डिग्री वाली बर्फ की 457 मीटर ऊँची दीवार (सीधी सपाट चढ़ाई) लांघी थी. जिस बर्फ और ठंडक का असर तीन दशकों में भी न गया हो वो कितनी भयावह स्थिति रही होगी! इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. बड़े से बड़े शारीरिक दर्द को हंसते हुए सहने की बेशक ये भारतीय योद्धा क्षमता रखता है लेकिन किस्मत ने कुछ ऐसे दर्द भी इनको दिए जो लाइलाज हैं. एक पुत्रवधू और एक पोते का समय से पूर्व इस दुनिया को अलविदा कह देना उनका एक ऐसा ही दर्द है.

कैप्टन बाना सिंह
कैप्टन बाना सिंह (दाएं) सेवाकाल के दौरान

जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान बॉर्डर के पास अपने पैतृक गांव कादयाल में एक कोने पर बने सादे से मकान में पत्नी और फौजी बेटे राजिंदर सिंह के परिवार के साथ रहते बाना सिंह एक ऐसी शख्सियत के मालिक हैं जो ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे में दोनों जगह मुफीद हैं. सेना में भरपूर सेवा देने के बाद साल 2000 में रिटायरमेंट के बाद यहां रहकर खेती कर रहे हैं. ओनररी कैप्टन के तौर पर भारतीय सेना से रिटायर हुए बाना सिंह ने रक्षक न्यूज़ टीम के साथ दिल खोल कर साफगोई से बातें कीं. कुछ निजी भी, कुछ मन की भी और कुछ समाज और सेना की भी. उनके परिवार में कई फौजी हैं. बाना सिंह कहते हैं, “देश सेवा का असली मौका फ़ौज है और कभी न कभी वीरता दिखाने का यहां मौका मिलता ही है.’ लेकिन भारतीय समाज में सेना और सैनिकों के बारे में जानकारियों और जागरूकता के अभाव से उनको कभी कभी बहुत टीस पहुंचती है.

परमवीर चक्र (param veer chakra) से सम्मानित योद्धा के लिए उसके नाम के आगे अंग्रेज़ी में पीवीसी (PVC) लिखा जाता है. बाना सिंह बताते हैं कि एकाध बार ऐसा भी होता है कि लोग इस सम्मान को प्लास्टिक की एक किस्म पीवीसी से सम्बन्धित मानकर उनसे इस बारे में पूछने लगते हैं. उनको ये दर्द भी सालता है कि पूर्व सैनिकों और योद्धाओं को उस तरह यहां तरज़ीह नहीं दी जाती जैसी कुछ अन्य देशों में होता है. वह कहते हैं कि परमवीर चक्र या इस तरह के सम्मान पाए बहादुर जब विदेश में एक से दूसरी जगह जाते हैं तो सम्बन्धित ज़िले या शहर के पूरे सिस्टम को इसकी जानकारी होती है और वहां यथासंभव उनके सत्कार और सुविधा का ख्याल रखा जाता है. दूसरी तरफ भारत का हवाला देते हुए बाना सिंह कहते हैं. ‘यहां तो उस हिसाब से भत्ते में इज़ाफा करने के लिए भी हमें खुद कहना पड़ता है.’

 

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कैप्टन बाना सिंह तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन के साथ

नायब सूबेदार बाना सिंह को जब परमवीर चक्र दिया गया तब उनके भत्ते के तौर पर 50 रूपये वेतन में और जोड़े गये. हालांकि ये काफी कम था लेकिन शुरू में लगा कि सरकार इसमें धीरे धीरे इज़ाफा करती रहेगी लेकिन बरसों तक ये 50 रूपये ही रहा. कई सालों के बाद ये 1500 ही किया गया. बाद में सरकार को पत्र लिखा गया तो 10 हज़ार किया गया लेकिन अब परमवीर चक्र से सम्मानित सैनिक को 20 हज़ार रूपये वेतन में भत्ते के तौर पर और दिए जाते हैं. लेकिन ये भी तब हुआ जब दिल्ली के चक्कर लगाये गये. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से भी मिले थे. हालांकि बाना सिंह ने खुद ये भी बताया कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के समय में और प्रकाश सिंह बादल के समय में पंजाब सरकार ने उन्हें भरपूर आदर दिया और पंजाब में आकर रहने पर खेतिहर ज़मीन और शहर में रहने के लिए बड़े प्लाट का प्रस्ताव किया था. कैप्टन बाना सिंह कहते हैं कि वह जम्मू कश्मीर के हैं और अंतिम सांस तक यहीं के होकर रहेंगे. उन्होंने ये प्रस्ताव ठुकरा दिया था.

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कैप्टन बाना सिंह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ

सेना में भर्ती से लेकर सियाचिन के मोर्चे पर जीत और उसके लिए परमवीर चक्र मिलने तक के तमाम घटनाक्रम याद करते करते इस फौजी की आंखों में चमक और शरीर का जोश लगातार बना रहता है. आलम तो ये था कि बीच बीच में बाना सिंह उस वक्त ऑपरेशन राजीव में अपनाई गई समर नीति और हथियारों की बारीकियां भी बड़ी दिलचस्पी से बताने लगते हैं. दरअसल सियाचिन के इस ऑपरेशन को राजीव नाम इसलिए दिया गया था क्योंकि सियाचिन की जिस सबसे ऊँची चोटी पर पाकिस्तान ने कब्ज़ा किया था उसे वापस लेने की शुरूआती कोशिश में भारत की थल सेना के अधिकारी सेकंड लेफ्टिनेंट राजीव पांडे और उनके साथी शहीद हो गये थे. लेफ्टिनेंट राजीव पांडे के नेतृत्व में ये टुकड़ी हालात का जायज़ा लेने के लिए पेट्रोल पार्टी के तौर पर निकली थी.

जिन्ना के नाम पर थी चोटी :

पाकिस्तान ने सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जाई इस सबसे ऊँची चोटी पर बनाई चौकी का नाम पाकिस्तान के जनक कायद ए आज़म मुहम्मद अली जिन्ना के नाम पर ‘कायद चौकी’ रखा था. लेकिन जब बाना सिंह और उनके बहादुर साथियों ने इसे फिर से हासिल कर लिया तो इस सियाचिन ग्लेशियर की इस सैनिक चौकी का नाम ‘बाना चौकी’/ ‘बाना टॉप’ रख दिया गया. इस चौकी को वापस अपने अधिकार में लेने का पूरा प्लान ब्रिगेड कमांडर चंदन सिंह नग्याल ने बनाया था. इसकी ज़िम्मेदारी जम्मू कश्मीर लाइट इन्फेंटरी की 8 वीं बटालियन (8 JAK LI) को सौंपी गई थी.

कैप्टन बाना सिंह
कैप्टन बाना सिंह अपनी पत्नी के साथ युवावस्था में

रास्ते में पड़े थे शहीद साथी :

बाना सिंह बताते हैं कि एक बार तो ऐसा मौका भी आया कि लगने लगा कि इस यहां की दुर्गम चढ़ाई को पूरा करके ऊपर तक पहुंच पाना ही नामुमकिन है. इस कोशिश में शहीद हुए साथियों के शव उन्होंने रास्ते में पड़े देखे थे. बाना सिंह तब 8 जम्मू कश्मीर इन्फेंटरी में नायब सूबेदार थे और वहां क्वाटर मास्टर का काम कर रहे थे जिसका ज़िम्मा रसद आदि पहुँचाना और उसका पूरा हिसाब किताब रखना होता है. बाना सिंह बताते हैं कि ऑपरेशन की तैयारी का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें 2 अधिकारी, 3 जेसीओ (जूनियर कमीशंड अधिकारी) और 57 अन्य रैंक के सैनिक थे. इन सबके लिए अमर और सोनम चौकी के बीच बेस कैम्प में इंतजाम करने की खातिर हेलिकॉप्टर ने 400 उड़ानें भरी थीं. ये उड़ानें भी इस तरह से भरी जाती थीं कि वहां होने वाली गतिविधियों के पीछे का असल मकसद दुश्मन को पता न चले.

6 दिन पहले ही हमले करने का प्लान :

समुद्र तट से 21 हज़ार फुट से भी ज़्यादा उंचाई वाले सियाचिन ग्लेशियर पर तब हालात ऐसे थे कि अप्रैल-मई में भी तापमान माइनस 30 होता था और हवा की रफ्तार भी 40 से 60 किलोमीटर प्रति घंटा होती थी. हालत ये थी कि मोहनलाल नाम का एक सिपाही तो अत्यधिक ऊंचाई में ऑक्सीजन की कमी के कारण ही बीमार हो दम तोड़ बैठा था. ये 24 जून की बात थी. तब तक प्लान था कि चौकी वापस लेने के लिए चढ़ाई 30 जून को की जाएगी लेकिन इस घटना के बाद सबने तय किया कि इसमें तो 6 दिन बचे हैं क्यों न कार्रवाई तुरंत शुरू की जाए. बाना सिंह कहते हैं, ” हमें लगा था कि 24 घंटे में ही हम ऊपर पहुंच जाएंगे. रात के अंधेरे में दुश्मन की नज़र बचाकर बर्फ की दीवार पर चढ़ाई शुरू की लेकिन सुबह 4 बजे तक सिर्फ 800 मीटर ही जा सके इसलिए वापस आना पड़ा.”

ठण्ड में बंदूक भी जाम हो जाती थी :

बाना सिंह उस वाकये को याद करते हैं, ” सीओ साहब तब काफी उत्तेजित थे जैसे कि गुस्से में हों. उन्होंने कहा कि मुझे पोस्ट हर हाल में चाहिए.” बाना सिंह बताते हैं कि तब मुझे मेजर वीरेंदर सिंह ने बुलाया और माउंटेन वार फेयर में ट्रेंड सैनिकों की 4 टोलियां बनाई.” इन चार में से एक टोली का हेड नायब सूबेदार बाना सिंह को बनाया गया. बाना सिंह बताते हैं कि पहली दो टोलियां लौट आई थीं जिनमें से एक सूबेदार हरनाम सिंह और दूसरी सूबेदार संसार चंद की थी. असल में दिक्कत ये थी कि वहां सर्दी इतनी थी कि बंदूकों ने काम करना बंद कर दिया था. बंदूकों के बेहद कम तापमान के कारण बंदूक जाम हो जाती थी. दुश्मन ऊंचाई पर था. पाकिस्तानी सैनिकों की बंदूकें भी ठंड में जाम हो जाती थीं लेकिन वो ऊंचाई पर थे और वहां उन्होंने बन्दूकों को गर्म रखने के लिए स्टोव के रूप में आग का इंतजाम कर रखा था.

जब मेजर वीरेंदर को गोली लगी :

दोनों टोलियों के नाकाम होने के बाद फाइनल असाल्ट के तौर पर तीसरी टोली को भेजा गया था जिसे बाना सिंह लीड कर रहे थे. बाना सिंह बताते हैं कि हालत ये थी कि चढ़ना या चलना तो दूर तब बर्फ पर वहां खिसकना भी बेहद मुश्किल था. कंधे पर बंदूक और भारी भरकम गोला बारूद लदा था. दुश्मन तक पहुंचने के लिए पहले तो सीधी खड़ी बर्फ की दीवार पर ही जीत हासिल करनी थी. उनके साथ ही एक और टुकड़ी लेकर खुद मेजर वीरेन्द्र सिंह भी दूसरे रास्ते से निकले. इस बार चढ़ाई दिन में ही शुरू की गई लेकिन मेजर वीरेन्द्र की टुकड़ी पर पाकिस्तानी सैनिकों की नज़र पड़ गई. दुश्मन की एक गोली आई और मेजर वीरेन्द्र के सीने को भेद गई. मेजर घायल होकर गिर पड़े.

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कैप्टन बाना सिंह अपनी पत्नी और रक्षक न्यूज की टीम के साथ

बर्फ में ही छिपते थे :

बाना सिंह कहते हैं, “जब गोली आती थी तो ओट लेने के लिए कुछ नहीं होता था, बर्फ को खोद कर उसमें ही छिपना पड़ता था.” बाना सिंह और उनके साथी जवान जब रस्सियों के सहारे चढ़ाई कर रहे थे तो बर्फीला तूफ़ान आ गया. सामने कुछ नहीं दिखाई दे रहा था – जीरो विजिबिलिटी वाली स्थिति थी. दूसरी तरफ इसका फायदा भी उनको मिल रहा था क्यूंकि दुश्मन भी उनको देख नहीं पा रहा था. कई घंटों के बाद जब चोटी पर पहुंचे तो काफी थक चुके थे लेकिन उन्होंने तभी दुश्मन पर हमला करने का प्लान बनाया.

यूं किया हमला :

सामने पाकिस्तानी सैनिकों का बंकर था. बंदूकें तो जाम थीं, सो बाना सिंह ने बंकर के करीब जाकर उसमें हथगोला फेंका और एक ही झटके में बंकर का दरवाज़ा भी बाहर से बंद कर डाला. जो पाकिस्तानी भीतर थे वो वहीं मारे गये. कुछ पाकिस्तानी सैनिक बंकर के बाहर थे लेकिन वो इस अचानक हमले से हैरान थे. बंदूकें उनकी भी नहीं चल रही थीं. यहां सैनिकों में हाथापाई हुई. कुछ मारे गये और कुछ भाग खड़े हुए. वह पाकिस्तान के स्पेशल सर्विस ग्रुप (एसएसजी – SSG) के कमांडो थे. बाना सिंह और उनके साथियों ने इस पोस्ट पर कब्ज़ा करके फतह हासिल कर ली.

पहले भूख मिटाई :

जीत का जश्न मनाने का ये मौका था लेकिन बाना सिंह और उनके साथी थकान और भूख से बेहाल थे. बाना सिंह बताते हैं कि पहले भूख मिटाने का इंतजाम किया गया. बंकर में पाकिस्तानी सैनिकों का राशन था. वहीं पर चावल उबालकर खाए गये. अगले दिन ब्रिगेडियर नग्याल ने चौकी का दौरा किया और ऐलान किया कि अब इस ‘बाना टॉप’ कहा जाएगा.

6 जनवरी 1949 में जन्मे बाना सिंह 20 साल की उम्र में यानि 1969 में भारतीय सेना की 8 जम्मू कश्मीर लाइट इन्फेंटरी में भर्ती हुए थे. बाना सिंह सूबेदार मेजर के तौर पर साल 2000 में सेना से सेवामुक्त हुए. उन्हें मानद कैप्टन बनाया गया. बाना सिंह पत्नी रविंदर कौर और परिवार के बाकी सदस्य जम्मू में पाकिस्तान की सीमावर्ती रणजीत सिंह पूरा (आरएस पुरा) सेक्टर में रहते हैं.

भारत में शूरवीरता के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान परमवीर चक्र अब तक 21 सैनिकों को दिया गया है.