सिख रेजीमेंट का गणतंत्र दिवस परेड पर दो बार सलामी देने का राज़

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गणतंत्र दिवस
राजधानी दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड (फाइल)

वो 24 जनवरी 1979 की सर्द सुबह थी. भारत की राजधानी दिल्ली गणतंत्र दिवस के मौके पर शुरू होने वाले उन समारोहों को मनाने के लिए अंतिम तैयारी के दौर में थी जिनमें बन्दोबस्त की ज़्यादातर ज़िम्मेदारी सेना की ही होती है. 26 जनवरी को होने वाली उस तकरीबन 14 किलोमीटर के रूट वाली परेड की फुल ड्रेस रिहर्सल शुरू हो चुकी थी जिसे राजपथ पर इण्डिया गेट के करीब, दाहिने हाथ पर बने सलामी मंच पर, राष्ट्रपति को सलामी देते हुये अलग अलग सड़कों से गुजरते आज़ादी के प्रतीक लाल किले पर सम्पन्न होना था.

दाहिने देख :

विजय चौक से, राजपथ, इण्डिया गेट, कर्जन रोड (अब कस्तूरबा गाँधी मार्ग) से कनाट प्लेस होकर मिंटो ब्रिज से रामलीला मैदान होकर, चावड़ी बाज़ार, किनारी बाज़ार पार कर चुकी थी और बस लाल किला सामने ही दिखाई दे रहा था. सड़क के दोनों तरफ खड़े और छतों पर चढ़े लोग रंगों से लबरेज़ जोशीली शानदार परेड का लुत्फ़ ले रहे थे. कुछ दी दूर दाहिनी तरफ गुरुद्वारा सीस गंज साहब था जिसके सामने पहुँचते ही सिख रेजिमेंट की टुकड़ी को कमांड कर रहे कैप्टन इंजो गाखल (इंदरजीत सिंह गाखल) ने गरजती आवाज़ में आदेश दिया – दाहिने देख. इसके साथ ही उन्होंने अपनी तलवार दाहिनी तरफ गुरुद्वारा सीस गंज साहब के सम्मान में श्रद्धा भाव से झुकाते हुए सलामी दी.

गणतंत्र दिवस
कैप्टन (बाद में ब्रिगेडियर) इंजो गाखल (इंदरजीत सिंह गाखल)

गुरुद्वारे से श्रद्धालु और सेवादार इस नज़ारे को देख थोड़े चौंक गए थे. ये उनके हाव भाव से भी दिखाई दे रहा था, बकौल परेड टुकड़ी कमांडर क्यूंकि ऐसा पहली बार हुआ था. और उसके बाद जो हुआ वो बेहद मजेदार था.

खैर गरुद्वारा सीस गंज साहब को पार करके अपना बचा हुआ तकरीबन आधा-पौना किलोमीटर का रूट परेड ने पूरा किया और टुकड़ी आराम करने के लिए जाने लगी. इस बार चौंकने की बारी सिख रेजीमेंट की उस टुकड़ी के जवानो की थी. असल में उनके स्वागत में गुरु का कड़ाह प्रसाद लेकर गुरुद्वारा सीसगंज साहब के सेवादार खड़े थे. सर्दी की सुबह, लम्बी परेड के बाद थके हुए जवान हों और उस पर भूख के कारण पेट में दौड़ते चूहे-ऐसे में गरमा गरम कढ़ाह प्रसाद से बड़ा सम्मान, इनाम और पवित्र पुरस्कार क्या हो सकता है. लेकिन घटना सिर्फ इतनी भर नहीं थी.

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कैप्टन (बाद में ब्रिगेडियर) इंजो गाखल (इंदरजीत सिंह गाखल)

ऐसे बनी एक परम्परा :

24 जनवरी की रिहर्सल के बाद 26 को गणतंत्र दिवस की परेड वैसे ही निकली. इस बार फिर सिख रेजीमेंट की टुकड़ी के कमांडर ने आदेश दिया – दाहिने देख..! और अपनी तलवार सलामी देने के लिए गुरुद्वारा सीस गंज साहब की तरफ झुकाई ही थी कि वो हुआ जो तब परेड के इतिहास में नहीं हुआ था. ऐसा कि जिससे गुरुघर की परम्परा भी सेना की परम्परा में शामिल हो गई. इस बार गुरुद्वारे के सेवादार और प्रबंधक चौंके नहीं बल्कि चौंकाने के लिए खुद तैयार थे. उन्होंने टुकड़ी के गुरूद्वारे के सामने आते ही फूलों की जबरदस्त बारिश शुरू कर दी. और इसके साथ ही जयकारे गूंज उठे – बोले सो निहाल… सत श्री अकाल !

सैन्य शक्ति, शानदार रंग बिरंगी पोशाक में चौड़े सीने वाले जोशीले रण बाँकुरों की कदम ताल और उन पर गुरुद्वारे से पूरे श्रद्धा भाव से बरसाई जा रही खुशबूदार फूलों की पत्तियाँ- मन को मोह लेने वाला ये नज़ारा तब पहली बार लोगों ने देखा था लेकिन उस साल के बाद ये नज़ारा आने वाले बरसों में हरेक गणतंत्र दिवस परेड का अंग बन गया.

ब्रिगेडियर इंजो गाखल :

इस परम्परा की शुरुआत करने वाले इंजो गाखल भारतीय सेना से बतौर ब्रिगेडियर रिटायर हुए लेकिन आज भी पूर्व सैनिकों की सेवा में लगे है. चंडीगढ़ के पास पंचकुला में रह रहे ब्रिगेडियर इंजो गाखल अब पंजाब पूर्व सैनिक निगम (Punjab Ex servicemen Corporation – PESCO) के प्रबंध निदेशक हैं. ब्रिगेडियर गाखल को उस परेड का एक एक लम्हा याद है जिसका ज़िक्र करने पर वह खुश होते हैं. आखिर हो भी क्यो न! गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने का तो हर किसी जवान का सपना होता है. एक ऐसा मौका जब देश की तीनों सेनाओं के प्रमुख राष्ट्रपति को सलामी देने का. उस पर इन्जो गाखल तो खुद ऐतिहासिक सिख रेजीमेंट की टुकड़ी के तब कमान अधिकारी थे.

ब्रिगेडियर गाखल कहते हैं कि धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक भारतीय सेना बहुत हैं. सिख रेजीमेंट में भी ऐसा ही है. ये हमारो परम्परा का हिस्सा है कि जहां भी धार्मिकं या पवित्र स्थान हो वहां खुद ब खुद हम नतमस्तक हो जाते हैं.

गुरुद्वारा सीस गंज साहब :

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गुरुद्वारा सीस गंज साहब

गुरुद्वारा सीस गंज साहब उस स्थान पर बनाया गया है जहां सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर शहीद हुए थे और धड से अलग हुआ उनका सिर गिरा था. वो तारीख 24 नवम्बर 1675 थी. गुरुतेग बहादुर अपने कुछ साथियों के साथ पंजाब के आनंदपुर साहब से दिल्ली आये थे ताकि लोगों के जबरन धर्मांतरण पर उतारू दिल्ली की सल्तनत पर राज कर रहे छठे मुग़ल बादशाह औरंगजेब को समझा सकें. उनके पास कश्मीरी पंडितों का जत्था मदद की उम्मीद लेकर आया था जिन पर औरंगज़ेब के हुकम पर अत्याचार किये जा रहे थे. इससे पहले कि गुरु तेग बहादुर और उनके साथी लाल किले तक जाते. उन्हें रास्ते में ही चांदनी चौक में शहीद कर दिया गया.