‘जो डर गया समझो मर गया’ डायलाग ने बनाया इस करगिल हीरो को जिंदगी का योद्धा

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मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

सच में यकीन नहीं हुआ जब श्रीनगर में तैनात एक सैनिक अधिकारी ने बताया कि रात को ही तो मेजर डीपी सिंह ने बर्थ डे केक काटा और हमने सेलिब्रेट किया था. यकीन इसलिए नहीं हुआ क्यूंकि मेजर डीपी (maj d p singh) सिंह का जन्म तो 13 सितंबर को हुआ था और उन्होंने केक कटिंग (cake cutting) की 15 जुलाई को. ख़ैर थोड़ी देर में ही सही, ये उलझन दूर हो गई जब मेजर डीपी सिंह की जीवन यात्रा पर नज़र डाली. दरअसल 15 जुलाई का ही वो दिन था जब करगिल में ऑपरेशन विजय के दौरान दुश्मन ने मेजर डीपी सिंह और उनके साथियों पर वो गोला दागा था जिसके धमाके से शरीर का ऐसा खतरनाक अनजाम हुआ कि डॉक्टरों ने मेजर डीपी सिंह को मृत ही मान लिया था. जिस्म का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा रहा होगा जिसमें ज़ख्म न हुए हों और खून न बह रहा हो. पोस्टमार्टम शुरू होते ही उनके शरीर में हरकत हुई, कुछ ऐसा चमत्कार ही हुआ और डॉक्टरों की मेहनत रंग लाई कि डीपी सिंह जी उठे. और ऐसे उठे कि दौड़ पड़े. सौ दो सौ कदम नहीं हजारों कदम एक साथ और वो भी एक टांग के दम पर.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

जी हां, यहां बात हो रही है भारत के पहले ब्लेड रनर उन्हीं मेजर डीपी सिंह की जो अब तक 28 मैराथन (marathon) दौड़ चुके है. असली जन्मदिन की तारीख की गुत्थी सुलझते ही जब मेजर डीपी सिंह से संपर्क साधा तो पता चला कि उनको सुबह सुबह ही श्रीनगर से किश्तवाड़ निकलना है. यही नहीं ये फासला उनको सड़क मार्ग से तय करना था और उस पर तुर्रा ये कि कार भी मेजर डीपी सिंह खुद चलाएंगे. ख्याल सिर्फ एक ही आया, ” ये कैसा जीवट है, नकली टांग के सहारे अकेला ड्राइव करता है वो भी कश्मीर के ऊंचे पर्वतों पर..!”. फिर अपने आप ही इसका जवाब भी मिल गया. आखिर उस इंसान के सामने ड्राइविंग क्या चीज़ है जो हजारों फुट की ऊंचाई से डाइविंग (Skydiving ) तक कर सकता हो और वो भी अकेला. जी हां, भारतीय सेना का ये जांबाज़ योद्धा मेजर डीपी सिंह रिटायर्मेंट के बाद भी ऐसा चुनौती भरा कारनामा करता रहता है. मेजर डीपी सिंह एक पांव वाले स्काई डाइविंग करने वाले एकमात्र शख्स हैं. खैर उस दिन मेजर डीपी से मुलाक़ात न हो सकी लेकिन जल्द ही मिलने के वादे से बात ख़त्म हुई.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

इस घटना को बीते कुछ दिन हो चुके थे लेकिन जहन में मेजर डीपी सिंह की तस्वीर लगातार बनी रही और तरह तरह के सवाल मन में उठते रहे. यकीन नहीं होता कि कोई इंसान ऐसा भी हो सकता है. हमें ज़रा सा भी दर्द हो तो कोहराम मचा देते हैं लेकिन मेजर डीपी सिंह उन ज़ख्मों को सबसे बड़ी नियामत समझ कर उनका मज़ा लेते हैं जो करगिल के युद्ध में उनको मिले. उन जख्मों को जी भर के जीते है. ये सेना की ट्रेनिंग है या मेजर के भीतर का बुलंद इंसान? या कुछ और ही माजरा है? जिंदगी जीने का अजीब फ़लसफ़ा ही कहा जाएगा जब मेजर डीपी सिंह उस शख्स का शुक्रिया अदा करते हैं जिसने उनको मारने के लिए गोले दागे थे जिसमें से एक ऐसा फटा कि जिस्म को बाहर से तो क्या भीतर तक उनकी अंतड़ियों पर भी मार कर गया. खैर श्रीनगर में नहीं तो लेकिन चंड़ीगढ़ में मेजर डीपी सिंह से मुलाकात हुई और कई सवालों के जवाब भी तो उनसे ज़रूर मिल गये लेकिन जंग में एक जिंदगी गंवा कर दूसरा जन्म पाने की सोच वाले 48 साल के इस रिटायर्ड फौजी अधिकारी से हुई बातचीत ने कुछ और सवाल भी जहन में पैदा किये.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

साधारण परिवार :

हरियाणा के जगादरी में पैदा हुए और उत्तर प्रदेश के रुड़की (अब उत्तराखंड में) में पले बढ़े दविंदर पाल सिंह यानि डीपी सिंह के पिता सीमा सड़क संगठन (border road organisation – BRO) और भूटान में थे. उनके दादा गुरपाल सिंह भारतीय सेना में सूबेदार मेजर के ओहदे से रिटायर हुए थे. वे बंगाल इंजीनियर्स में थे. एक मामूली सी हैसियत वाले परिवार के साधारण से नौजवान दविन्दर सिंह की भी सेना में जाने की इच्छा थी, सो अधिकारी बनने के लिए राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (National Defence Academy – NDA – एनडीए) में दाखिले का इम्तहान दिया लेकिन नाकामी हाथ लगी.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

बैंक क्लर्क से सैनिक अधिकारी बने :

वक्त के साथ उम्र बढ़ी लेकिन जज़्बा बरकरार रहा. घर के हालात ऐसे नहीं थे कि सेना में जाने के लिए कोचिंग आदि लेते रहें और 12 वीं के आगे की पढ़ाई भी साथ करें. खैर इलाहाबाद बैंक में क्लर्क भर्ती परीक्षा पास की और क्लर्क बन गये. लुधियाना में नौकरी की लेकिन डिस्टेंस लर्निंग एजुकेशन से पढ़ाई जारी रखी. मेरठ यूनिवर्सिटी (चौधरी चरण सिंह विश्विद्यालय) से बस ग्रेजुएशन की और सीडीएस परीक्षा (सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा – combined defence service exam) पास की और फ़ौज में बतौर अधिकारी शामिल हो गये. मेजर डीपी सिंह ने 1997 में डोगरा रेजिमेंट में कमीशन हासिल किया. करियर में ऐसे हालात और संघर्षों का बहुत से लोगों का पड़ता है लेकिन इसके बाद जो मेजर डीपी सिंह के जीवन में हुआ या ये कहें कि जैसा उन्होंने अपना जीवन बनाया वो सच में दुर्लभ सा ही है. शायद उनकी सोच के साथ ताकत और हिम्मत ही वजह जो 34 हज़ार से ज्यादा लोग उनको फेस बुक (@facebook) पर और 60 हज़ार से ज़्यादा ट्वीटर पर फालो करते हैं.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

करगिल युद्ध की 15 जुलाई :

1999 में करगिल में पाकिस्तान सीमा वाली नियंत्रण रेखा (line of control – एलओसी) पर सिर्फ 80 मीटर के फासले से पाकिस्तानी चौकी से उन पर हमला हुआ था. चीथड़े हुए एक पैर में इलाज के दौरान एक पैर में गैंगरीन हो गया था. मेजर डीपी सिंह कहते हैं, ” मुझे खुद ही समझ आ गया था और मैंने डॉक्टरों को बोला कि टांग काट दो.” जब भी किसी फौजी की युद्ध भूमि में टांग कटने की या ऐसी नौबत आने की घटना का ज़िक्र होता है तो भारतीय सेना के उस फौजी अधिकारी यानि मेजर जनरल इयान कारडोजो (Major General Ian Cardozo) की याद आती है जिन्होंने 50 साल पहले पाकिस्तान के साथ युद्ध के दौरान घायल होने पर अपनी जान बचाने के लिए अपनी उस टांग को खुद ही खुकरी से काट डाला था जिसे काटने का न तो डॉक्टरों के पास बन्दोबस्त था और न ही उनकी हिम्मत हो रही थी. ख़ैर, मेजर डीपी सिंह इस मामले में किस्मत के धनी रहे. उनको मरणासन्न अवस्था से डॉक्टरों ने बाहर निकाला.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

टांग कटी तो एथलीट बने :

दिलचस्प बात ये है कि देश विदेश में तरह तरह की दौड़ और एडवेंचर जैसी गतिविधियां करने वाले मेजर डीपी सिंह का पहले कभी भी इस तरफ रुझान नहीं था. वे कहते हैं कि सेना में भर्ती होते समय फिटनेस देखने के लिए या ट्रेनिंग के दौरान कराई जाने वाली दौड़ और ऐसी शारीरिक गतिविधियों में भी उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं होती थी. लेकिन एक टांग गंवाने के बाद सामने आई चुनौतियों से सामना करते करते मन ऐसा हो गया कि ऐसा हर काम करने की उन्होंने ठान ली जो कोई भी दोनों हाथों पैरों वाला शख्स करता है. मेजर डीपी सिंह कहते हैं, ” मैं तो शुक्र मनाता हूँ उस आदमी का जिसने मेरे ऊपर गोला फेंका, अगर मेरी टांग न जाती तो शायद मैं वो सब करने की सोच भी नहीं पाता जो अब कर रहा हूँ”. मेजर डीपी सिंह ये बात खुद तो साबित कर ही चुके हैं कि हाथ, पैर या कोई अंग कटने के बाद भी इंसान के लिए शान से जीना मुश्किल नहीं है बल्कि अब वे यही बात अपने जैसे उन लोगों के जरिये भी साबित करवा रहे हैं जो अपने अंग गंवा चुके हैं. मेजर डीपी सिंह ने ऐसे लोगों के मन से हीन भावना बाहर निकलने के लिए तरह तरह के कार्यक्रम और प्रशिक्षण शुरू किये हैं. वे कहते हैं, ‘मुझे ये देखकर अजीब लगता है और तकलीफ होती है जब कोई अपने कटे अंग या कृत्रिम अंग को छिपाने की कोशिश करता है”.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के साथ.

जो डर गया समझो मर गया :

मेजर डीपी सिंह से मुश्किल दौर में साहस और शक्ति जुटाने के बारे में बात हुई तो उन्होंने एक बड़ा ही दिलचस्प जवाब दिया. मेजर डीपी सिंह का कहना था कि घायल अवस्था में इलाज के दौरान फिल्म शोले के खलनायक गब्बर सिंह के किरदार के डायलाग ‘जो डर गया समझो मर गया’ ने बहुत मनोबल बढ़ाया. अमज़द खान के इस डायलाग को मेजर डीपी सिंह बार बार सुना करते थे. मेजर डीपी सिंह को लोगों की सहानुभूति या दया दिखाती नज़रें बेहद खलती थीं. शायद इस हालत से बचने या इसका जवाब देने के लिए ही उन्होंने पैदल चलना ही नहीं वरन दौड़ने का निश्चय लिया. हालांकि इसमें उनको दस साल का अरसा लग गया.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

दिव्यांग नहीं चैलेंजर्स कहो :

मेजर डीपी सिंह की क्षमता इतनी है कि वे पैरा ओलंपिक में भी मेडल जीतकर आ सकते हैं लेकिन उन्होंने ये रास्ता नहीं चुना. अपने पर नहीं, उन्होंने अपने जैसे अंगहीन हुए लोगों पर काम करना शुरू किया. लिहाज़ा वो खुद को नहीं अपने जैसे लोगों को स्थापित करने की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. इसके लिए उन्होंने बाकायदा ‘द चैलेंजिंग वंस’ ( The Challenging Ones – TCO ) नाम की संस्था बनाकर 2500 ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ा है जो अंगविहीन हुए लेकिन अब अपनी क़ाबिलियत बढ़ा रहे हैं. आधी टांग कटने के बाद जीवन के विभिन्न पहलुओं को अलग नज़रिए से देखते हुए और चुनौतियों को पार पाते हुए ‘मन को जीतना, आत्म सम्मान और सब्र रखना’ जैसे गुणों और विषयों पर मंथन की अहमियत उनको समझ आई. “अंगविहीन हुए लोगों को पहले अपनी सोच बदलनी चाहिए, उन्हें भला अपनी कटी टांग छुपाने की ज़रूरत क्यों है”, सवाल करते है मेजर डीपी सिंह. वे अंग भंग से प्रभावित लोगों को दिव्यांग नहीं ‘चैलेंजर’ ( चुनौती का सामना करने वाला) कहना पसंद करते हैं.

मेजर डीपी सिंह
मेजर डीपी सिंह

यूं बने ब्लेड रनर :

1999 में घायल होने के बाद मेजर डीपी सिंह को डोगरा रेजीमेंट से ऑर्डनेन्स बोर्ड स्थानांतरित कर दिया गया था. उनकी तैनाती राजधानी दिल्ली स्थित शकूर बस्ती डिपो में थी. मेजर डीपी सिंह बताते हैं दिल्ली में ही पहली बार वे 2009 में नकली टांग के सहारे दौड़े. ये उनके जीवन की पहली मैराथन थी. इसके बाद उन्होंने दो बार और एयरटेल मैराथन में हिस्सा लिया. देश के सामने वे तभी सुर्ख़ियों में आये थे. लेकिन ये कामयाबी इतनी आसान नहीं थी. दौड़ के बाद टांगों में जख्म हो जाया करते थे और जिनसे कृत्रिम अंग मंगाते थे, उनके विशेषज्ञों के पास इस समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ करता था. मेजर डी पी कहते है. ‘नकली टांग खून से भर जाती थी और उनका कहना होता था कि ये तो होगा ही’. लेकिन इस मामले में उनकी मदद की लेफ्टिनेंट जनरल मुकेश सब्बरवाल ने और उनको ब्लेड (प्रोस्थेटिक लिंब – prosthetic limb) मंगवा कर दिया. इसे लगाकर पहली बार 2011 में दौड़े मेजर डीपी सिंह भारत के पहले ब्लेड रनर बने और इसी तरह लोकप्रिय भी हो गये. ये ब्लेड जर्मनी से मंगाया गया था. भारत में तब इसके बारे में लोगों को ज़्यादा जानकारी भी नहीं थी.

बहुमुखी प्रतिभा :

शारीरिक ताकत ही नहीं कर्म और ईश्वर में अटूट आस्था रखने वाले बेहद संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक करगिल योद्धा मेजर डीपी सिंह लेखक भी हैं. अपने जीवन में ज़ीरो से हीरो बनने तक के बचपन के सफर से लेकर करगिल युद्ध में टांग गंवाने और फिर उसके बाद भारत के पहले ब्लेड रनर तक की उनकी कहानी इस किताब ‘ग्रिट : द मेजर स्टोरी’ ( Grit : The Major Story ) में ग्राफिक्स के ज़रिये बयान की गई है. ये किताब धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही है. भारत के चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने इस किताब का फ़ॉरवर्ड (forward) लिखा है. शरीर का अंग कट जाने या क्षतिग्रस्त हो जाने से जीवन में आये बदलाव को एक सकारात्मक सोच के साथ वे जीते ही नहीं, जीना सिखाने का ज़रिया भी बन रहे हैं. एक एथलीट के तौर पर भी मेजर डीपी सिंह प्रेरणास्त्रोत हैं. इतना काम करने के साथ साथ वे एक बालक के पिता हैं. मेजर डीपी सिंह सिंगल पेरेंट (single parent) के तौर पर बेटे की परवरिश कर रहे हैं. एक एथलीट के गुण उनके बेटे में भी हैं.

ईश्वर में आस्था :

मेजर डीपी सिंह मानते हैं – छोड़ देना बहुत आसान है …ज़्यादातर लोग ऐसा करते है.. हालांकि, मैं अगर नाकाम भी हो जाऊं तब भी आखिरी सांस तक कोशिश करते रहना चाहूंगा. मैं जानता हूँ जानता हूं कि ये मुश्किल है लेकिन जब ईश्वर ने खुद मुझे इस चुनौतियों के लिए चुना है तो मैं क्यों फ़िक्र करूं. नतीजे की चिंता वही करेगा.

मेजर डीपी सिंह ने अपनी वेबसाइट पर ही ये लिखा है: “It is very easy to QUIT… majority does so… I, however, would like to TRY till last breath, even if I fail. I know it is hard but then I am chosen by God himself for these challenges so why should I bother. Let HIM only worry about result. Jai Hind – Major DP Singh “

मेजर डीपी सिंह का मानना है कि कुदरत उनसे जो काम करवा रही है उसका तरीका शायद यही तय किया गया होगा. इसके लिए मैं सेना में भर्ती हुआ और बमुश्किल दो साल ही एक सैनिक की तरह फील्ड पोस्टिंग कर सका. उनका कहना है ईश्वर जो काम उनसे करवाना चाहता था वे शायद उनके टांग कटने के बाद पैदा हुए हालात से ही हो सकता था.

शायद मेजर डीपी सिंह सरीखे लोगों और उनके जैसे हौंसलों की उड़ान भरने का माद्दा रखने वालों के बारे में ही सोच कर कवि दुष्यंत कुमार ने लिखा होगा :

कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता..?
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों..!