देश की सुरक्षा के लिए सीमाओं पर दुश्मन देश के सैनिकों और अवैध घुसपैठ रोकने के लिए किये जाने वाले बन्दोबस्त की कीमत सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों और फौजियों को ही नहीं बहुत से नागरिकों को भी चुकानी पड़ती है. अफ़सोस की बात ये है कि इनमें से अक्सर अपने हाथ पैर गंवा कर अपंग होने वालों की तादाद तो काफी है ही बहुतों को तो जान भी गंवानी पड़ती है. बावजूद इसके न तो इनकी कुर्बानी को मान्यता मिलती है और ना ही इन्हें वो मदद हासिल होती है जिसके ये हकदार हैं. ये लोग उस आबादी का हिस्सा हैं जो सीमाई इलाकों में बसती है. ये वो लोग हैं जो अपने ही देश के सैनिकों के लगाये हथियार यानि एंटी पर्सनल लैंड माइन के धमाकों के जाने अनजाने शिकार होते हैं. ऐसे लोग कोई इक्का दुक्का नहीं, बहुत सारे देशों में हैं. इन एंटी पर्सनल लैंड माइन पर रोक लगाने और इनके फटने से शिकार हुए लोगों की पीड़ा व उनके पुनर्वास की मांग को लेकर अलख जगाने का बीड़ा उठाने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल कैम्पेन टू बैन लैंड माइंस की भारत में गतिविधियां चलाने वाली संस्था इंडियन कैम्पेन टू बैन लैंड माइंस के सेमिनार में इस तरह के लोगों से जुड़े कई मुद्दे सामने आये.
इंडियन कैम्पेन टू बैन लैंड माइंस के संयोजक डॉक्टर बालकृष्ण कुर्वे ने सेमिनार में मुख्य वक्ता के तौर पर दिए अपने सम्बोधन में कहा कि ज़रूरत न सिर्फ लैंड माइंस को लगाये जाने से रोकने की है बल्कि इनके शिकार हुए नागरिकों को उचित मुआवजा देने बल्कि उनके उचित पुनर्वास का बन्दोबस्त करने की भी है जिसके प्रति सरकारें या सेना उतनी दिलचस्पी नहीं लेती. भारत के सन्दर्भ में उन्होंने, एंटी पर्सनल लैंड माइन से प्रभावित परिवारों की मदद के लिए उन्हें सरकारी नौकरियों व योजनाओं में आरक्षण की सुविधा देने की मांग को जायज़ ठहराया है.
डॉक्टर कुर्वे ने बताया कि भारत ने 1999 में करगिल युद्ध और फिर संसद पर हमले की घटना के बाद बड़ी तादाद में, पाकिस्तान से सटी सीमा पर, इस तरह की लैंड माइंस लगाई थीं ताकि पाकिस्तान की तरफ से आतंकवादियों और दुश्मन सैनिकों की घुसपैठ रोकी जा सके. बाद में इसमें से कई बारूदी सुरंगें निकाल कर निष्क्रिय कर दी गई लेकिन कई लैंड माइंस खोजी नहीं जा सकीं या अपनी जगह से खिसक गईं. ऐसी लैंड माइंस के ऊपर पाँव आने से धमाके होने के कई मामले सामने आये जिसमें लोग हताहत हुए, कइयों के हाथ पैर जाते रहे तो कुछ के प्राण भी गये.
आम तौर पर लैंड माइंस सीमावर्ती ग्रामीण क्षेत्रों में, गाँव के खेतों में, जंगलों में, नदी किनारों में, रेगिस्तान में, पहाड़ी इलाकों लगाई जाती है. भारत में इन्हें एक निश्चित समय के बाद निकाल लिया जाता है लेकिन विभिन्न कारणों से कुछ माइंस छूट जाती हैं और क्यूंकि बेहद छोटे आकार की (जूते की पॉलिश की डिब्बी जितना) होने के कारण इनका पता नहीं चल पाता और उस इलाके में जाने पर लोग इनके धमाकों के चपेट में आ जाते हैं. अक्सर बच्चे भी इनके धमाकों के शिकार होते हैं. कई मामले ऐसे भी हुए जब जमीन के नीचे से उभर आई लैंड माइन को बच्चों ने प्लास्टिक का खिलौना समझा और उससे खेलने के कोशिश में हताहत हो गये.
डॉक्टर कुर्वे ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर इस तरह के कार्यक्रमों और सेमिनारों का आयोजन किया जा रहा है ताकि इस विषय पर जनमानस में जागरूकता बढ़ाई जाए. इनवेस्टिंग इन एक्शन शीर्षक से सेमिनार भी इसी की कड़ी है. ये सेमिनार सिविल सोसायटी की इस मामले पर भूमिका के प्रति धन्यवाद अदा करने का तरीका भी है.
अफगानिस्तान, सीरिया, पाकिस्तान, इराक जैसे युद्ध प्रभावित देशों में तो ये समस्या बहुत बड़ी है. इंटरनेशनल कैम्पेन टू बैन लैंड माइंस ने दुनिया के तमाम देशों को इस तरह के लैंड माइंस इस्तेमाल ना करने के लिए राज़ी करने का जो अभियान छेड़ा है उसमें अब तक 164 देश दस्तकत कर चुके हैं लेकिन भारत, पाकिस्तान, चीन, रूस, अमेरिका, नेपाल, सऊदी अरब, सीरिया, दक्षिण कोरिया जैसे तकरीबन 32 देशों ने अभी तक इससे सम्बन्धित संधि पर हामी नहीं दी है.
सेमिनार में सारथी टीवी चैनल और रक्षक न्यूज़ डॉट इन ने मीडिया पार्टनर की भूमिका निभाई.
www.rakshaknews.in के प्रधान सम्पादक संजय वोहरा ने उन कारणों की चर्चा की जिनकी वजह से लैंड माइंस का इस्तेमाल जारी है या पुरानी लैंड माइंस को निष्क्रिय करने के काम में उतनी तेज़ी नहीं आती जितनी उन्हें लगाने में की जाती है. उन्होंने बताया कि लैंड माइंस को खोजना पेचीदा और मुश्किल भरा काम होने के साथ साथ बेहद खर्चीला भी होता है खासतौर से तब जब सम्बन्धित क्षेत्र में परिवर्तन होते हैं. एक बारूदी सुरंग लगाने में जहां दो तीन डॉलर का खर्च आता है वहीं इसे खोजकर हटाने और फिर निष्क्रिय करने में ये खर्च कई गुना ज्यादा होता है. इसके अलावा इसमें समय भी बहुत लगता है.
www.rakshaknews.in के प्रधान सम्पादक संजय वोहरा ने इस अवसर पर भारत के सन्दर्भ में कहा कि यहाँ के जनसेवकों और खासतौर पर नीति निर्धारक नेताओं में रक्षा मामलों के प्रति दिलचस्पी की कमी भी इस तरह के मुद्दों के प्रति सरकारी तंत्र में उदासीनता की एक वजह है. संजय वोहरा ने इसे मानवता के प्रति अपराध बताया और इस मुद्दे पर मीडिया को भी ध्यान देने की ज़रुरत पर बल दिया. www.rakshaknews.in की तरफ से संयोजक अजय कपूर ने भी सेमिनार में हिस्सा लिया.
एंटी पर्सनल लैंड माइंस अभियान में वर्षों से जुड़े डॉक्टर बालकृष्ण कुर्वे के सहयोगी और सेमिनार के संयोजक अमित शर्मा ने ऐसे कई संस्मरण बताये जब उनका वास्ता लैंड माइंस के प्रभावितों से पड़ा. उन्होंने बताया कि अक्सर ऐसे लोगों को मुआवजा, मदद या पुनर्वास के लिए बंदोबस्त कराने में दिक्कत आती है. सबसे बड़ी समस्या तो यही होती है कि सेना इस बात को कबूल ही नहीं करती कि पीड़ित व्यक्ति उनकी लगाई एंटी पर्सनल लैंड माइन की चपेट में आया है. कई दफा घायल व्यक्ति सरकारी अस्पताल की बजाय प्राइवेट इलाज करवा लेता है या आसपास उपलब्ध देसी इलाज से काम चला लेता है. ऐसे में इलाज के दस्तावेज़ी सही प्रमाण की कमी बाधा बनती है. प्रशासन उसकी मदद को तैयार नहीं होता.
गाज़ियाबाद के वसुंधरा स्थित ओलिव काउंटी में आयोजित इस सेमिनार में स्थानीय निवासियों और उन जागरूक नागरिकों ने भी शिरकत की और सवाल जवाब करने में दिलचस्पी दिखाई जिनका सीधा सीधा इस विषय से कोई ताल्लुक नहीं था. डॉक्टर बालकृष्ण कुर्वे ने ऐसे लोगों का विशेष तौर से धन्यवाद किया. एक सवाल के जवाब में उन्होंने ये भी बताया कि भारत के पूर्वोत्तर में सक्रिय कुछ उग्रवादी संगठनों ने लैंड माइंस का इस्तेमाल न करने का वादा किया है और ऐसा संकल्प भारत के नक्सली संगठनों से कराने के प्रयास चल रहे हैं.
सेमिनार में एंटी पर्सनल लैंड माइंस के विकल्प के तौर सीमाई इलाकों की सेंसर आधारित इलेक्ट्रोनिक तरीकों और वीडियो आधारित तरीकों से सुरक्षा पर भी चर्चा की गई.