मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल के अंत में कश्मीर पर जबरदस्त चर्चा

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मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल
मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान कश्मीर मसले पर चर्चा करता पैनल.

मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल के समापन वाले दिन, धरती की जन्नत माने गये कश्मीर के हालात पर हुई चर्चा में ये बात करीब करीब प्रमुख तौर पर उभरकर आई कि आतंकवाद ग्रस्त राज्य जम्मू कश्मीर की समस्या को सुलझाने को लेकर भारत का नेतृत्व उतना संजीदा नहीं रहा है जितना कि इसकी अहमियत को देखते हुए होना चाहिये. खुद उन शीर्ष अधिकारियों का ऐसा मानना है जिन्होंने न सिर्फ इस राज्य को करीब से देखा, समझा, जाना और भावनात्मक रूप से जिया है बल्कि यहाँ अहम ओहदों पर अपनी सेवाएँ दी हैं और अब भी यहाँ काम कर रहे हैं.

चर्चा में ये बात भी खुलकर सामने आई कि जम्मू कश्मीर के सामाजिक ताने बाने में कई तरह से आये विकार, लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुताबिक़ स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व का न पनपना और युवाओं के लिये अपेक्षित नेतृत्व की गैरमौजूदगी जैसे मुद्दों पर काम किये बिना यहाँ के हालात नहीं सुधारे जा सकते. न तो अलग होकर पहले पड़ोसी और फिर दुश्मन बने अकेले पाकिस्तान को इसका दोष देना सही और न ही इलाज के लिये इसे सुरक्षा बलों पर छोड़ देना जायज़ है. राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति और रणनीति दोनों का अभाव इस समस्या को कायम रखे हुए है.

मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल
मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान रक्षकन्यूज.इन के प्रधान संपादक संजय वोहरा के साथ लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन.

इस चर्चा में शामिल दिग्गजों में इस बात पर करीब करीब सहमति थी कि पिछले चार दशकों में ऐसे चार-पांच मौके आये जब सुरक्षा बलों ने अपनी भूमिका निभाते हुए हालात को अपने स्तर पर बेहतर किया लेकिन देश का नेतृत्व राजनीतिक व राजनयिक रूप से सक्रिय होकर हालात को अपने पक्ष में नहीं कर पाया. हालांकि ये भी माना गया इस दिशा में जो भी थोड़ा बहुत किया गया तो अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय में हुआ.

चंडीगढ़ में सुखना लेक क्लब प्रांगण में तीन दिवसीय इस सैन्य उत्सव में सबसे सामायिक मानी जा सकने वाली इस चर्चा में हिस्सा लेने और इसका संचालन करने वाले थे लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत) सैयद अता हसनैन जो न सिर्फ जम्मू कश्मीर में भारतीय थल सेना के कोर कमांडर रहे हैं बल्कि मिलिटरी सेक्रेटरी भी रहे. वह आज भी कश्मीर यूनिवर्सिटी के चांसलर के नाते इस राज्य और यहाँ के युवाओं से जुड़े हुए हैं.

जनरल हसनैन का कहना है कि राज्य में आपसी बातचीत के माहौल की कमी को दूर किया जाना चाहिये. वह कहते हैं, ‘हालात ये है कि राज्य के तीनों हिस्से जम्मू, कश्मीर और लेह-लद्दाख आपस में ही बात नहीं करते, ये एक दूसरे को प्रतिद्वंद्वी की तरह देखते हैं’. जनरल हसनैन कहते हैं कि इसमें मीडिया एक बड़ा रोल निभा सकता है. राज्य से पलायन को मजबूर हुए कश्मीरी पंडित परिवारों के लौटने का माहौल बनना चाहिये.

चर्चा में प्रमुख तौर पर मुखर रहे भारतीय पुलिस सेवा के 1965 बैच के राजस्थान कैडर के अधिकारी और करगिल संघर्ष के वक्त ख़ुफ़िया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ -RAW) चीफ रहे ए. एस. दुलत का कहना था कि आर्मी ने यहाँ बेहतर काम किया है लेकिन कश्मीर सैन्य समस्या नहीं है. उन्होंने कहा कि कश्मीर में आज़ादी की बात करने वालों को खुद ही नहीं मालूम कि उन्हें आज़ादी किससे चाहिये?

पूर्व रॉ प्रमुख का कहना है कि हालाँकि हुर्रियत नेता कोई जनता के चुने हुए नहीं हैं लेकिन केन्द्र सरकार की तरफ से हुर्रियत कानफ्रेंस के मीर वायज से भी बात की जानी चाहिये. श्री दुलत ने स्पष्ट कहा कि इस सन्दर्भ में स्वर्गवासी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में उठाये गये कदम सही थे. वाजपेयी कश्मीर के मर्म को समझ पाए थे. श्री दुलत कश्मीर को एक भोली भाली ऐसी गाय बताते हैं जिसका हर कोई इस्तेमाल कर रहा है.

दूसरी तरफ रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल गौतम बनर्जी का भी कहना था कि कश्मीर के हालात सुधारने के लिए सेना और सुरक्षा बलों का इस्तेमाल करना दूसरे नम्बर पर सोचा जाना चाहिये. उनका कहना था कि पिछले 30 साल में 4 – 5 बार कश्मीर में मिलिटरी एक्शन कामयाब हुआ लेकिन उस स्थिति को अगले स्तर पर ले जाने के लिए हर बार राजनीतिक कार्रवाई फेल रही.

उनका कहना था कि कश्मीर के युवाओं के बगावती तेवर वाली संस्कृति समाज को तोड़ रही है और उनमें इस्लामिक कट्टरपन घर कर रहा है. वहीँ ग्रामीण स्तर पर राजनीतिक सक्रियता नहीं है. उनका कहना था कि युवाओं में आतंकवाद की तरफ जाने की बड़ी वजह बेरोज़गारी नहीं है. ऐसा होता तो देश के उन क्षेत्रों में भी रुझान देखा जाता जो ऐसी हिंसा से ग्रस्त हैं. जनरल बनर्जी का कहना था कि देश के शीर्ष नेतृत्व को पता ही नहीं है कि कश्मीर में करना क्या है. बस सब कुछ आर्मी के हवाले छोड़ दिया गया है.

वहीं कश्मीर और पाकिस्तान से जुड़े विषयों पर काफी लिखने वाली मंच पर मौजूद एकमात्र महिला पैनलिस्ट लेखक व पत्रकार तवलीन सिंह का कहना था कि कश्मीर में धार्मिक कट्टरपन के ज़रिये आतंकवाद को हवा मिल रही है और वहां कश्मीरियत के उस जज़्बे में कमी आई है जो पहले देखा जाता था. कश्मीरी इस्लाम में सूफी तत्व ख़त्म हो गया है. यहाँ मस्जिदों में महिलाएं नमाज़ पढ़ने तक जाती थीं और उदारवादी सोच थी लेकिन अब इसकी जगह हिज़ाब ने ले ली है. सिनेमाघर, थियेटर और शराब की दुकानें बंद करवाई गई हैं. कुल मिलाकर सोच का दायरा सिकुड़ गया है.

करीब घंटा भर तक चली इस चर्चा में 40 बरस राष्ट्रीय सुरक्षा व सामरिक योजनाओं पर काम करके बिता चुके रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल मोहन भंडारी ने कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में की गई गलतियों का ज़िक्र किया और इस समस्या में पाकिस्तान की भूमिका पर खूब बात की. जनरल भंडारी का कहना कि भारत के पास पाकिस्तान पर भारी पड़ने के लिए काफी कुछ है. पानी से लेकर विदेशी करंसी तक का उन्होंने ज़िक्र किया. उन्होंने कहा कि भारत को पूरे दमखम के साथ पाकिस्तान से बात करनी चाहिए लेकिन इसके लिए नीति और रणनीति बनाये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. उन्होंने कहा कि नाक की लड़ाई की वजह से आगे नहीं बढ़ा गया.

कश्मीर पर हुई इस चर्चा में, हाल ही में लेफ्टिनेंट जनरल के ओहदे से सेवानिवृत्त हुए सतीश दुआ ने भी हिस्सा लिया जो आतंकवाद निरोधक कार्रवाइयों के विशेषज्ञ माने जाते हैं. वह जम्मू कश्मीर में सेना के कोर कमांडर रहे हैं. उन्होंने कहा कि 2014-15 तक पाकिस्तान से आने वाले आतंकियों का लगभग सफाया हो चुका था अब वहां से नहीं बल्कि राज्य से ही युवा आतंकवाद की तरफ जा रहे हैं. उनका कहना है कि कश्मीरी युवा नेतृत्व विहीन है और सोशल मीडिया पर रोबिन हुड जैसी छवि के प्रति उनका झुकाव होता दिखाई दे रहा है.

जनरल दुआ का कहना है कश्मीर के लोगों के सशक्तिकरण और उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ने की ज़रूरत है. वहां के युवकों के जेहन को काबू करने की ज़रूरत है जो खुद को नेतृत्व विहीन महसूस कर रहा है. कश्मीर खुद को अलग थलग होता महसूस कर रहा है. जनरल दुआ का मानना है कि देश कश्मीर समस्या को समग्र रूप से नहीं देख रहा. हम इसके लक्षणों के आधार पर हालात का आकलन करते हैं. अमरनाथ यात्रा ठीक से सम्पन्न हो जाये या टूरिस्ट सीज़न सही है या नहीं… इस तरह के लक्षण सही हालात बयान नहीं करते.