नौशेरा का शेर जिसने पाकिस्तानी सेना का चीफ बनने का जिन्नाह का ऑफर भी ठुकराया

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नौशेरा का शेर
तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू के साथ नौशेरा का शेर

वो महज़ 12 साल का था जब गाँव में कुएं में डूबते बच्चे की जान बचाने की खातिर अपनी जान की परवाह किये बगैर कुएं में कूद गया था. यही नहीं सिर्फ 35 साल की उम्र में उसे एक देश ने अपनी सेना में शामिल होने और कालांतर में सेना प्रमुख बनाने का वादा भी दिया था लेकिन उसने उसी देश की सेना से मुकाबला करते हुए अपने को कुर्बान करना बेहतर समझा. उसे नाम मिला ‘नौशेरा का शेर’. यहाँ ज़िक्र हो रहा है भारतीय सेना के लिए गौरव बने शहीद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का जिन्होंने आज ही के दिन 3 जुलाई 1948 को शहादत पाई थी. शूरवीरता के लिए दूसरे सबसे बड़े सम्मान ‘महावीर चक्र’ से मरणोपरांत सम्मानित ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान सच्ची देशभक्ति और भारतीय सेना की उच्च श्रेणी की धर्मनिरपेक्षता की बड़ी मिसाल हैं. यही नहीं ब्रिगेडियर उस्मान रणक्षेत्र में शहीद का दर्जा पाने वाले भारतीय सेना के अब तक सबसे बड़े रैंक के अधिकारी हैं.

नौशेरा का शेर
नौशेरा की जंग का एक फोटो

पाकिस्तान सेना का ऑफर :

15 जुलाई 1912 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन बीबीपुर (वर्तमान मऊ) में जन्मे ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान भारतीय सेना के उन मुस्लिम अधिकारियों में से एक थे जिन्होंने, धर्म के नाम पर बांटे गये देश के उस टुकड़े पाकिस्तान की सेना में जाने से इनकार कर दिया था. धर्म से पहले देश या फिर देश ही धर्म है जैसी सोच के मालिक ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान की रगों में खून से ज्यादा देशभक्ति बहती थी. पाकिस्तान के संस्थापक, 1913 से 1947 में पाकिस्तान के गठन तक मुस्लिम लीग के सदर और पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्नाह की तरफ से आये लालच भरे पैगाम को सिरे से ख़ारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि अगर मोहम्मद उस्मान पाकिस्तान की सेना का हिस्सा बन जायेंगे तो एक दिन उनको पाकिस्तान सेना का चीफ बना दिया जायेगा.

नौशेरा का शेर
ब्रिगेडियर उसमान को पैराट्रूपर ने सलामी दी

दबाव में नहीं आये :

दरअसल ब्रिगेडियर उस्मान उस समय 10 बलूच रेजीमेंट में थे और उसकी 14 बटालियन को कमांड कर रहे थे. भारत के बंटवारे के दौरान बलूच रेजीमेंट पाकिस्तान सेना का हिस्सा बन गई थी. एक मुसलमान अधिकारी होने के नाते ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान पर भी पाकिस्तानी सेना में शामिल होने का जबरदस्त दबाव था लेकिन उन्होंने खुद को इस दबाव से बाहर निकाल लिया था. इसके साथ ही उनका तबादला बलूच रेजिमेंट से डोगरा रेजीमेंट में कर दिया गया.

जमीन पर सोना :

यही नहीं 1947 में ही पाकिस्तान ने रियासती सूबे जम्मू कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए पहले हथियारबंद कबीलाई लोगों को भेजा और फिर उनके सपोर्ट करते हुए पाकिस्तानी सेना ने 25 दिसम्बर 1947 को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण झंगर पर कब्ज़ा कर लिया. ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान जो उस वक्त 77 पैराशूट ब्रिगेड को कमांड कर रहे थे उनको 50 वीं पैरा कमांड करने के लिए झंगर भेजा गया था. उसी दिन मोहम्मद उस्मान ने कसम खा ली कि जब तक झंगर से पाकिस्तान की सेना को खदेड़ भारत का फिर से कब्ज़ा नहीं कर लेते तब तक चैन से नहीं सोयेंगे और सच में वह चैन से नहीं सोते थे. वह ज़मीन पर चटाई बिछा कर सोते थे, बिस्तर पर नहीं. जब उनसे पूछा गया कि ऐसा क्यूँ तो उनका जवाब था कि पाकिस्तान के कब्जाये गये कश्मीर के उस हिस्से को वापस नहीं लेते तब बिस्तर पर नहीं सोयेंगे. ये कसम पूरी करने में उनको तीन महीने लगे लेकिन इस कसम को पूरा करने में उन्हें अपना सर्वोच्च न्यौछावर करना पड़ा.

नौशेरा का शेर
नौशेरा का शेर

नौशेरा का शेर :

1948 के जनवरी और फरवरी महीनों में ब्रिगेडियर उसमान ने नौशेरा और झंगर में पाकिस्तानी सेना पर तगड़े हमले किये. ये दोनों ही जगह सामरिक महत्व की थीं. नौशेरा को बचाने के चक्कर में लड़ाई के दौरान पाकिस्तान को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. इस लड़ाई में भारत के 35 जवानों की जान गई थी लेकिन पाकिस्तान के तकरीबन 1000 जवान मारे गये और लगभग 1000 ही घायल भी हुए. इस लड़ाई के बाद ब्रिगेडियर उस्मान का नाम ही पड़ गया – नौशेरा का शेर.

पाकिस्तान ने रखा इनाम :

नौशेरा की हार से पाकिस्तान इतना बौखला गया कि उसने ब्रिगेडियर के सिर पर इनाम रख दिया. ऐलान कर डाला कि जो कोई भी ब्रिगेडियर उस्मान का सिर लेकर आएगा उसे 50000 रूपये का इनाम दिया जाएगा. इतना नाम होने और शान बढ़ने के बावजूद ब्रिगेडियर उस्मान अपने संकल्प पर डटे रहे.

तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल के एम करियप्पा (जो बाद में भारत के सेनाध्यक्ष बने और रिटायर्मेंट के बाद फील्ड मार्शल भी बनाये गए) ने पश्चिमी कमांड का प्रभार संभाला था. तब उनकी देखरेख में सेना ने फरवरी 1948 के आखिरी हफ्ते में दो ऑपरेशन छेड़े. एक था झंगर और दूसरा ऑपरेशन पूँछ. इस बार भारतीय सेना की 19 वीं इन्फेंट्री ब्रिगेड उत्तरी रिज की तरफ आगे बढ़ी जबकि 50 पैरा ब्रिगेड ने उस पहाड़ी क्षेत्र को दुश्मन से खाली कराया जो नौशेरा- झंगर मार्ग के दक्षिण में था. आखिरकार दुश्मन को झंगर से खदेड़ दिया गया और भारतीय सेना ने अपना कब्ज़ा जमा लिया. पाकिस्तान ने झंगर में अपनी नियमित सेना को रणक्षेत्र में उतार दिया. ये मई 1948 की बात है. अबकी बार पाकिस्तान इतना बौखला गया कि उसने झंगर में जबरदस्त बमबारी शुरू कर दी. इसके बावजूद झंगर को ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने हाथ से जाने नहीं दिया अलबत्ता ऐसे ही एक मुकाबले में बमबारी के दौरान हमले में उनकी जान चली गई.

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झंगर में ब्रिगेडियर उसमान की प्रतिमा.

शहीद का दर्जा :

सरकार ने उन्हें शहीद का दर्जा लिया. उन्हें आखिरी विदाई देने के लिए तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य भी शामिल हुए. अपने जन्मदिन से 12 दिन पहले शहीद हुए ब्रिगेडियर उस्मान के आखिरी शब्द थे कि बेशक मेरी जान चली जाए लेकिन दुश्मन के हाथ में वो इलाका नहीं जाना चाहिए. राजकीय और सैनिक सम्मान के साथ इस शूरवीर ब्रिगेडियर को विदा करने के साथ ही सरकार ने महावीर चक्र से सम्मानित करने का एलान किया.

सेना में करियर :

मार्च 1935 में ब्रिटिश शासन काल के दौरान सेना में भर्ती हुए मोहम्मद उस्मान को अप्रैल 1936 में लेफ्टिनेंट बनाया गया और 31 अगस्त 1941 में तरक्की देकर कैप्टन का ओहदा प्रदान किया गया.