ये रुपये, बंदूक और वर्दी कौन लेगा? फोटोग्राफ्स में प्रथम विश्व युद्ध

1113
बंदूक
ब्रिटेन की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में मोर्चे पर डटे भारतीय सैनिक एक बच्चे से मिलते हुए.

“ये रुपये, बंदूक और वर्दी कौन लेगा? वो ही, जो फ़ौज में फ़ौरन भर्ती होगा”-भारतीय फौज में भर्ती के लिए छेड़े गये अभियान के दौरान जारी किये गये उर्दू के इस पोस्टर में लिखी ये बात कनाडा से आई प्रभजोत परमार जब बुलंद आवाज़ में कहती थीं तो जिज्ञासावश वे लोग भी अक्सर उनके इर्द गिर्द जमा हो जाते थे जो मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में लगाई उनकी प्रदर्शनी पर बस एक नज़र मारकर निकल जाना चाहते थे. लेकिन एक बार जब कोई रुक जाता था प्रभजोत के दुर्लभ पोस्टर और तस्वीरें उस शख्स को अपनी तरफ खींच लेती थीं… आगन्तुक उन्हें किताब की तरह पढ़ने लगता था और उसके मायने जानने की उत्सुकता बढ़ जाती थी.

बंदूक
अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा प्रथम विश्व युद्ध में भर्ती के लिए उर्दू में यही पोस्टर जारी किया था.
बंदूक
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की एक दुर्लभ तस्वीर.
बंदूक
मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में लगाई गई प्रदर्शनी.
बंदूक
डॉ प्रभजोत परमार मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में लगाई अपनी प्रदर्शनी में लोगों की जिज्ञासाओं को शांत करती हुई.
बंदूक
डॉ प्रभजोत परमार और रक्षकन्यूज.इन के प्रधान संपादक संजय वोहरा.

इसके साथ ही प्रभजोत लोगों को समझाती हैं कि भारत में तब ब्रिटिश सरकार थी और भारतीय सेना प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की तरफ से मोर्चे पर डटी थी. ये वह वक्त था जब शूरवीरता और कम वेतन में काम करने को तैयार भारतीयों की सैनिक के तौर पर खूब मांग थी. अंग्रेज़ी हुकूमत ने तब ये पोस्टर जारी किया था और पोस्टर के साथ ही मुनादी की जाती थी. पोस्टर में और मुनादी में ‘फ़ौरन भर्ती’ की बात पर ज्यादा ज़ोर दिया जाता था. यानि बंदूक और वर्दी उसी क्षण लेने का सुनहरी मौका दिया जाता था. भर्ती होने वाले जवान को 11 रुपये तनख्वाह और बहादुरी दिखाने पर जमीनें तक देने के वादे होते थे.

1914 – 18 के उस दौर में 11 रुपये बड़ी रकम होती थी और फिर अंग्रेजी हुकूमत के दौरान फ़ौजी वर्दी और बन्दूक का अपने पास होना किसी भी ग्रामीण नौजवान को आकर्षित करता था. सेना में परिवार के किसी युवक को भेजने के पीछे एक दूसरा भाव भी होता था. डॉ परमार बताती हैं कि इन परिवारों को भरोसा होता था कि सैनिक के युद्ध से लौटने पर जमीनें, ओहदा और सम्मान मिलेगा, यदि शहीद हुए तो आश्रितों का सरकार पूरा ख्याल रखेगी.

द ग्रेट वॉर के नाम से जाने जानी वाली जंग यानि प्रथम विश्व युद्ध पर रिसर्च कर चुकीं डॉ प्रभजोत परमार भारत के उन गिने चुने परिवारों में एक हैं जिनकी दो-चार नहीं सात पुश्तें तक भारतीय सेना से जुड़ी हैं. उनके भाई भी सेना में हैं. प्रभजोत की प्रदर्शनी में, युद्ध में घायल होकर अंग गँवा चुके ऐसे सैनिकों की तस्वीरें भी हैं जो शायद बालिग़ भी नहीं रहे होंगे. महज़ 14-15 साल के लड़के व्हील चेयर पर.

सौ साल से भी ज्यादा पुरानी ये तस्वीरें, चंडीगढ़ में सैलानियों को सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाली सुखना लेक के मुहाने लगे तीन दिन के मिलिटरी लिटरेचर फेस्टिवल में आये जन साधारण को ही नहीं, सेना और वर्दीधारी संगठनों से ताल्लुक रखने वालों को भी न्योता दे रही थीं, साथ ही उनके जेहन में इतने सवाल खड़े कर देती थीं कि जिसका जवाब प्रदर्शनी की क्यूरेटर प्रभजोत परमार के पास ही होता था. मजे की बात तो ये है कि प्रभजोत न सिर्फ उन आगंतुकों को तस्वीरों के मायने और तब के हालात बयान करती थीं बल्कि 8- 9 साल के उस बालक के भी भोले भाले सवालों के जवाब देने में खुश होती थीं जिस बच्चे को दो देशों के भी युद्ध का सही मतलब नहीं पता.

मूलत: पंजाब के फगवाड़ा के गाँव मायोपट्टी की रहने वाली प्रभजोत परमार ने पहले अमृतसर में और फिर चंडीगढ़ में लगाई इस प्रदर्शनी का शीर्षक था ‘तैयार और साफ़ : भारत और महान युद्ध’ . किसी अंग्रेज फौजी अधिकारी के परिवार के महज़ बमुश्किल चार साल के बच्चे से भारतीय सैनिक के हाथ मिलाने और बाकी सैनिकों के मुस्कराने व कौतूहल भरे भाव से देखने वाली फोटो इस क्यूरेशन में ख़ास जगह रखती है. डॉ प्रभजोत परमार ने इस फोटो प्रदर्शनी के जरिये प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना और सैनिकों की भूमिका, उनके हालात और उनके प्रति ब्रिटिश हुकूमत के रवैये के अलग अलग पहलुओं को दर्शाया.

डॉ प्रभजोत कहती हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में इतिहासकारों ने काफी कुछ लिखा है और अलग अलग माध्यमों लेखन, टेलीविजन और फिल्मों से उसके बारे में लोगों को जानकारियाँ मिलती रही हैं लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के बारे में लोगों को उतना नहीं पता जबकि उस युद्ध में भारतीयों की जबरदस्त भूमिका रही है. कुछ तस्वीरें ऐसी हैं जो बतातीं है कि इस युद्ध में भारतीयों में भी सबसे खास भूमिका पंजाब और पंजाबियों की रही. युद्ध के ब्योरा का गुरमुखी (पंजाबी) में छपना और युद्ध के मैदान में गुरु ग्रन्थ साहिब को परम्परागत सत्कार के साथ ले जाते सैनिकों की तस्वीरें इस तरफ काफी इशारा करती हैं. वहीँ सिख सैनिकों की तरह, मैदान-ए-जंग में मुस्लिम सैनिक भी इस्लामिक तौर तरीके से नमाज़ पढ़ते थे जिसकी फोटो भी उपलब्ध है.

10 से 20 की गिनती वाले कितने ही समूहों के अलावा अलग अलग लोगों से भी डॉ प्रभजोत प्रथम विश्व युद्ध के बारे में तीनों दिन लगातार चर्चा करती रहती दिखीं. न लोगों के पास सवालों की कमी होती न ही डॉ परमार उनके जवाब देते देते थकतीं थीं. ये बात अलग है कि बोलते बोलते उनका गला बैठ जाता था लेकिन पानी के दो घूँट पीने के बाद वह फिर उस युद्ध के दिलचस्प इतिहास के किसी उस फ्लू पर बात करने लगती जिसकी तस्वीर प्रदर्शनी में वह लाई हों. इसी बीच कई ऐसे लोग भी उनसे मिलने आते जिनके पूर्वजों ने प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लिया. अक्सर लोग उनकी तस्वीर, कोई दस्तावेज़, बैज या मेडल साथ लेकर आते और जानने की कोशिश करते थे कि उनके पूर्वज सेना की किस यूनिट, मोर्चे, ओहदे आदि पर रहे होंगे. डॉ परमार के पास यदि उस वक्त उनको देने के लिए पूरी जानकारी नहीं होती तो वह उस शख्स को अपना संपर्क नम्बर दे देती थीं, इस वादे के साथ कि वह कुछ दिन में जानकारी दे देंगी.

उधमपुर के आर्मी पब्लिक स्कूल और चंडीगढ़ स्थित पंजाब यूनिवर्सिटी में भूगोल की छात्रा रहीं डॉ प्रभजोत परमार ने जलंधर के लायलपुर खालसा कालेज के बाद विदेश में भी पढ़ाई की. द यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न ओंटोरियो की छात्र रही डॉ परमार कनाडा की फ्रेजर यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाती हैं. डॉ परमार आजकल एक और विषय पर अनुसन्धान करके किताब लिखने की तैयारी कर रही हैं. इस बार उनकी रिसर्च के विषय सैनिकों के वे पत्र हैं जो उन्हें रण भूमि में प्राप्त होते थे या जो सैनिक अपने परिवारों को लिखते थे. जल्द ही इस दिलचस्प विषय पर भी रक्षक न्यूज़ जानकारी प्रकाशित करेगा.