भारतीय पुलिस सेवा ( indian police service) के 1988 बैच के तमिलनाडु कैडर के अधिकारी संजय अरोड़ा को 31 जुलाई 2025 को अपनी रिटायरमेंट वाले दिन दिल्ली के पुलिस आयुक्त के पद से सेवामुक्त कर दिया जाएगा .
एक वाक्य का यह आदेश केंद्र शासित क्षेत्र दिल्ली की सरकार के गृह विभाग की तरफ से 9 जून 2025 को जारी किया गया जिसके नीचे उप निदेशक ( गृह -I) संजीव कुंडू के हस्ताक्षर हैं . इस सरकारी आदेश के निचले हिस्से में एक दूसरे वाक्य में स्पष्ट किया गया है कि उपरोक्त आदेश दिल्ली के उप राज्यपाल की स्वीकृति से जारी किया गया है. वैसे इस दूसरे वाक्य का इतना ही महत्व है कि यह प्रशासनिक व्यवस्था की भाषा है लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट करती है और याद दिलाती है कि भले ही दिल्ली में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार आसीन है लेकिन य पुलिस प्रमुख या इसी तरह के अन्य आईपीएस – आईएएस अफसरों की यहां पर तैनाती पूरी तरह केंद्र सरकार के हाथ में होती है .
खैर , यहां पर सवाल उठता है कि -जब उम्र की तारीख के हिसाब से हरेक सरकारी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति का दिन तय होता है तो फिर यह आदेश जारी करने का मकसद क्या है . सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज आयु के मुताबिक रिटायर होने का दिन पहले से तय होने के बावजूद आमतौर पर सेना , पुलिस , अर्द्धसैन्य बलों के प्रमुखों या बड़े ओहदों पर नियुक्त वरिष्ठ अधिकारियों की सेवामुक्ति का ज़िक्र उस आदेश में ही किया जाता है जिसमें ओहदे को संभालने वाले नए अधिकारी की नियुक्ति घोषित की जाती है . इन संगठनों में तबादलों के मामले में भी ऐसा ही आदेश जारी करने का तरीका है . हां , कभी कभार सेवानिवृत्ति की तय तारीख से दो तीन दिन पहले भी किसी प्रमुख के बारे में ऐसा ऐलान किया जाता है लेकिन वो अक्सर संगठन की आंतरिक व्यवस्था का हिस्सा होता है. जब कभी विदाई परेड , फेयरवेल कार्यक्रम जैसा आयोजन होना हो या इस बारे में फ़ोर्स को सूचित करना हो.

क्यों जारी हुआ आदेश :
पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा के संदर्भ में तो ऐसा कुछ नहीं है . अभी उनकी सेवामुक्ति के लिए डेढ़ महीने से ज्यादा का वक्त बचा है . न ही उनका स्थान लेने वाले अधिकारी के नाम का केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने ऐलान किया है . तो फिर उनके दिल्ली पुलिस के कमिश्नर के तौर पर सेवामुक्त करने के आदेश जारी करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी ..! इसे लेकर तरह तरह के कयास भी लगाए जा रहे हैं . एक चर्चा यह भी है कि आईपीएस संजय अरोड़ा को सेवा विस्तार देने का विषय लंबित था जिस पर अब सरकार ने निर्णय ले लिया है. परन्तु यहां यह सवाल उठना भी लाज़मी है कि इसके लिए एक तरह से सार्वजनिक आदेश जारी करने की आवश्यकता क्या थी ? यूं भी संजय अरोड़ा को लेकर हाल फिलहाल में कोई विवाद भी खड़ा नहीं हुआ था . वो बात अलग है कि नए पुलिस कमिश्नर का नाम तय किए जाने की प्रक्रिया से पहले अफसरशाही व राजनीति में लॉबिंग चल रही हो, अफसरों की प्रतिद्वंदिता या किसी तरह का असंतोष आड़े आ रहा हो जिसे शांत करने का उपाय इस तरह के आदेश को जारी करने में देखा गया हो.
दिल्ली का सीपी बनने की महत्वाकांक्षा :
देश की सत्ता के केंद्र राजधानी दिल्ली के पुलिस प्रमुख के पद का बड़ा महत्व है और एजीएमयूटी कैडर के तो हरेक अधिकारी का कमिश्नर के ओहदे तक पहुंचने का सपना होता है. खासतौर पर उन अफसरों का जो अपने बैच में अधिकारियों में आयु में कम होते हुए भी अपनी परफॉर्मेंस के कारण वरिष्ठ होते हैं. कैडर में इसलिए उन अधिकारियों के बीच प्रतिद्वंद्विता होती रही है जो पात्रता पूरी करने के साथ साथ प्रतिभावान , लोकप्रिय हुआ करते थे. पिछले कुछ वर्षों में इस प्रतिद्वंदिता का दायरा और स्वरूप दोनों में ही बदलाव आया है . खासतौर से तब से जब से दिल्ली में एजीएमयूटी कैडर की बजाय अन्य कैडर के आईपीएस अधिकारियों को पुलिस प्रमुख बनाने की की रीति नीति बन गई है. भारतीय पुलिस के इतिहास में ऐसा पहले भी होता रहा है जब एक कैडर के आईपीएस को कैडर से बाहर अन्य राज्य में पुलिस प्रमुख बनाया गया लेकिन यह अपवाद होता था. प्रशासनिक व्यवस्था के नियमों की बाध्यता अथवा कुछ विशेष परिस्थितियों के दृष्टिगत ऐसी नियुक्तियां होती थीं .
आईपीएस कंवर पाल सिंह गिल ( k p s gill ), जुलियो फ्रांसिस रिबेरो ( j f rebeiro ) जैसे कुछ चर्चित नाम ऐसी मिसालें रही हैं जिन्होंने अपने कैडर से बाहर जाकर अन्य राज्यों के पुलिस विभाग की कमान संभाली थी. इत्तेफाकन दोनों ने ही अन्य राज्यों के अलावा पंजाब पुलिस की भी कमान संभाली थी जब पंजाब आतंकवाद का दौर झेल रहा था. मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे रिबैरो गुजरात के पुलिस महानिदेशक ( dgp gujarat ) भी बने. गिल असम में , तो दो बार पंजाब में डीजीपी रहे. तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थीं. उत्तर प्रदेश कैडर के आईपीएस अजय राज शर्मा ( ajai raj sharma ) भी ऐसी ही एक मिसाल थे जिनको दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बनाया गया था. उस वक्त केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन ( एनडीए ) की सरकार थी. उसी दौर में नई दिल्ली स्थित संसद भवन पर आतंकवादी हमला हुआ था.
बीते कुछ साल में दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की तैनाती को लेकर प्रतिद्वंदिता इसलिए बढ़ गई है क्योंकि यहां अब बाहर के कैडर के अधिकारी को पुलिस प्रमुख बनाना एक तरह से रुझान बनता जा रहा है. इसकी शुरुआत गुजरात कैडर के 1984 बैच के आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना से हुई थी जिनको रिटायरमेंट से सिर्फ 4 दिन पहले ही दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बना दिया गया था. उनके बाद तमिलनाडु कैडर के संजय अरोड़ा दिल्ली के पुलिस कमिश्रर बना दिए गए . ऐसे में अन्य राज्यों के कैडर के कई महत्वाकांक्षी आईपीएस अधिकारी दिल्ली के सीपी की कुर्सी को हासिल हो सकने वाली उपलब्धि या शानदार अवसर के तौर पर देखने लगे हैं. ज़ाहिर है कि अवसर का लाभ जो आईपीएस उठा सकता है वह उठाएगा ही. इस रुझान में जो खुद को फिट करना जानता है वो स्वाभाविक तौर पर कोशिश करेगा . हालांकि इससे एजीएमयूटी कैडर के उन कई अधिकारियों के सपनों पर पानी फिरा है जो दिल्ली पुलिस के शीर्ष पद से रिटायर होने की उम्मीद लगाए रहते हैं .
पुलिस को कब्जे में रखने के हथकंडे :
भारत में राजनीतिक दल पुलिस का इस्तेमाल सत्ता में बने रहने के लिए और अपने सियासी दुश्मनों पर नकेल कसने के एक शक्तिशाली औज़ार के तौर पर करते हैं. इसका पुराना इतिहास है जो ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू हुआ . यह सिलसिला अभी तक पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. बल्कि इसे खत्म करने की जो कोशिश की गई , उसका राजनीतिक व्यवस्था ने चोर रास्ता निकाल लिया. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद पुलिस सुधार कार्यक्रम के तहत डीजीपी स्तर के अधिकारियों और राज्य पुलिस प्रमुखों की नियुक्ति के लिए संघ लोक सेवा आयोग के जरिए एक प्रक्रिया बनाई गई लेकिन उस प्रक्रिया से बचने व मन मर्जी करने के लिए राज्यों ने पूर्णकालिक डीजीपी लगाने के बजाय किसी भी ऐसे आईपीएस अधिकारी को पुलिस प्रमुख बना दिया जिसकी पहली निष्ठा राजनीतिक नेतृत्व के प्रति हो . उत्तर प्रदेश इसका उदाहरण है जहां बीते पांच साल से यूपीएससी को डीजीपी नियुक्त करने के लिए अधिकारियों का पैनल नहीं भेजा गया बल्कि राज्य सरकार ने यूपी कैडर के आईपीएस अधिकारी को अपनी मर्जी से कार्यवाहक डीजीपी बना दिया.
बीती 31 मई को यूपी में पुलिस प्रमुख के पद से रिटायर हुए आईपीएस प्रशांत कुमार के स्थान पर आईपीएस राजीव कृष्ण की तैनाती इसका हाल ही का उदाहरण है. प्रशांत कुमार की तरह उनको भी कार्यवाहक महानिदेशक बनाया गया है . यही नहीं प्रशांत कुमार से पहले डीएस चौहान, आरके विश्वकर्मा और विजय कुमार भी यहां के कामचलाऊ पुलिस महानिदेशक ही रहे . आईपीएस राजीव कृष्ण की नियुक्ति भी इस ओहदे पर ऐन वक्त पर की गई जब प्रशांत कुमार के सेवानिवृत्ति के कुछ ही घंटे बचे थे. 1991 बैच के आईपीएस राजीव कृष्ण ने उत्तर प्रदेश पुलिस के कार्यवाहक महानिदेशक का कार्यभार आनन फानन में रात को संभाला. चर्चा थी कि प्रशांत कुमार को सेवा विस्तार न मिलने पर राज्य सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा .
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार के राज में 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी गौरव यादव को जुलाई 2022 में पंजाब का कार्यवाहक डीजीपी नियुक्त किया गया था, जब उनके पूर्ववर्ती वीके भावरा दो महीने की छुट्टी पर चले गए थे. लम्बे अरसे बाद यूपीएससी के पैनल ने केंद्र सरकार में डीजीपी के तौर पर उनकी नियुक्ति की पात्रता को स्वीकृति दी . दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के पद पर संजय अरोड़ा को भी सेवा विस्तार देने की चर्चा थी जिस पर 9 जून के आदेश के बाद फुल स्टॉप लगा गया है.
सियासी टकराव में पुलिस का दुरूपयोग :
दिल्ली में पुलिस का राजनीतिक दृष्टि से इस्तेमाल का दौर तब खुल्लम खुल्ला बढ़ा दिखाई देने लगा जब केंद्र और दिल्ली में अलग अलग राजनीतिक दल सत्ता पर आसीन हुए. उनके बीच टकराव की राजनीति शुरू हुई . उस समय भीमसेन बस्सी पुलिस आयुक्त थे हालांकि उनकी नियुक्ति पूर्व में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार के समय में ही हो गई थी. श्री बस्सी के पुलिस आयुक्त रहते आम आदमी पार्टी की अरविन्द केजरीवाल की सरकार थी. उस दौर में दिल्ली पुलिस पर आप नेताओं के खिलाफ दुराग्रह के कारण केस दर्ज करने के खूब आरोप लगे थे. यह सिलसिला बाद में भी चलता रहा जब आलोक वर्मा व अमूल्य पटनायक कमिश्नर बने . शाहीन बाग़ धरना , किसान आन्दोलन , पूर्वी दिल्ली के दंगे , जंतर मन्तर पर महिला पहलवानों का धरना आदि ऐसी कई घटनाएं थी जिनसे दिल्ली पुलिस की कार्रवाई पर सियासी दबाव की झलक दिखाई देती है.
भीम सेन बस्सी के बाद दिल्ली के पुलिस कमिश्नर हुए आलोक वर्मा जब साल भर बाद ही केन्द्रीय जांच ब्यूरो ( central bureau of investigation ) के निदेशक बने तो वहां राकेश अस्थाना विशेष निदेशक थे. दोनों ने एक दूसरे पर रिश्वतखोरी के आरोप लगाए थे. दोनों को जबरन छुट्टी पर भेज दिया गया था . आखिर में आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट जाकर कानूनी लड़ाई जीती और सीबीआई चीफ की कुर्सी फिर से हासिल की . इसके बाद सरकार ने उनका ट्रांसफर कर दिया लेकिन नया ओहदा उन्होंने स्वीकार नहीं किया . दूसरी तरफ राकेश अस्थाना भी दिल्ली हाई कोर्ट गए . उनको क्लीन चिट मिली . इस पूरे प्रकरण में सरकार का झुकाव राकेश अस्थाना के प्रति साफ़ दिखाई दे रहा था. इसके बाद श्री अस्थाना सीमा सुरक्षा बल ( border security force ) के महानिदेशक बनाए गए लेकिन सेवानिवृत्ति से मात्र चार दिन पहले 27 जुलाई 2021 को उनको सेवा विस्तार देने का निर्णय लेते हुए दिल्ली पुलिस का कमिश्नर नियुक्त कर दिया गया. उस समय एजीएमयूटी कैडर के बालाजी श्रीवास्तव पुलिस कमिश्नर का कार्यभार देख रहे थे. बालाजी श्रीवास्तव से पहले एस एन श्रीवास्तव दिल्ली पुलिस के आयुक्त ज़रूर नियुक्त किए गए थे लेकिन उनको भी लम्बे समय कार्यकारी कमिश्नर ही बना कर रखा गया था .
किसी आईपीएस को कार्यवाहक पुलिस प्रमुख नियुक्त किए रखना सत्तासीन दल के नेताओं को बहुत माफिक आता है क्योंकि उनके पास अधिकारी को बदलने की चाबी हमेशा रहती है. इसके लिए उनको केंद्र सरकार या यूपीएससी वाली प्रक्रिया पूरी करने का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं होती. ऐसे में पुलिस प्रमुख पर उनका दबाव भी बना रहता है. पद पर बने रहने के लिए अधिकारी को राजनीतिक शक्ति के प्रति निष्ठा भी रखनी पडती है या यूं कहें कि उनकी पहले से ही निष्ठा होती है तभी उनको यह अवसर मिलता है .
हाल फिलहाल में पुलिस ने ऐसे कितने ही केस दर्ज किए हैं जिनमें या तो शिकायतकर्ता या अभियुक्त किसी राजनीतिक दल से या उसकी विचारधारा से जुड़ा होता है. कितने ही केस सोशल मीडिया या किसी डिजिटल माध्यम पर पोस्ट किए गए कंटेंट से जुड़े होते हैं जो सियासी विचारधारा से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं. यह सामग्री किसी मुद्दे पर सरकार की आलोचना से सराबोर, समाज में नफरत या सांप्रदायिकता फैलाने वाली भी होती हैं. पुलिस ने ऐसे कई मामलों में मेरिट पर कार्रवाई करने की बजाय सतारूढ़ पार्टी के फायदे को देखते हुए कार्रवाई की है. नेताओं ने बुलडोज़र से लेकर एनकाउंटर जैसे तरीकों को भी पुलिस के ज़रिए आजमाने में कसर नहीं छोड़ी. भारत में एक ही तरह के लेकिन अलग अलग केस में पुलिस के कार्रवाई करने या न करने के तरीके में भेदभाव साफ़ दिखाई देता है. ऐसे कितने ही मामलों में अदालतों ने पुलिस को फटकार लगाई है या पुलिस कानूनी लड़ाई हारी है .
सरकारों का भी पुलिस के अच्छे बुरे काम को तोलने का तराजू अलग अलग है. प्रयागराज के महाकुम्भ में भगदड़ में 30 से अधिक श्रद्धालुओं की मौत के लिए किसी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया लेकिन बेंगलुरु में में चिन्नास्वामी स्टेडियम में हुई भगदड़ में 13 लोगों की मौत के तुरंत बाद ही एस एच ओ से लेकर पुलिस कमिश्नर बी दयानंद तक को सस्पेंड कर दिया गया. अप्रैल में जम्मू कश्मीर के पहलगाम में 26 लोगों की आतंकवादियों के हत्या कर डाली थी. उस पर वहां के पूरे पुलिस सिस्टम की नाकामी या खामी पर कोई बात अभी तक नहीं हुई.
भीम सेन बस्सी पुलिस कमिश्नर के ओहदे से रिटायर होने के बाद यूपीएससी (upsc ) के सदस्य बना दिए गए थे . यूं दिल्ली पुलिस के आयुक्त रहे अफसर पहले भी केंद्र सरकार से ऐसे ओहदे पाते रहे हैं. पूर्व आयुक्त डॉ कृष्ण कान्त पॉल को कांग्रेस ने उत्तराखंड में राज्यपाल बनाया था तो निखिल कुमार पहले नागालैंड के और फिर केरल के गवर्नर बने. यूं तो वे बिहार के राजनीतिक परिवार से पहले से ही ताल्लुक रखते थे और उनके पिता सत्येन्द्र नारायण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री रहे व सात बार सांसद भी चुने गए थे. खुद निखिल कुमार भी सांसद रहे थे. बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ीं लेकिन हारीं किरण बेदी भी पुद्दुचेरी की उप राज्यपाल बनाई गई थीं. हालांकि लोकप्रिय, पात्र और वरिष्ठ होने के बावजूद श्रीमती बेदी दिल्ली की पुलिस आयुक्त नहीं बन पाई थीं .
यह सब इतना समझने के लिए काफी है कि भारत में सत्ता हासिल करने तथा उस पर कब्जा कायम रखने के लिए हो रही वोट बैंक की राजनीति के तहत समाज का ध्रुवीकरण करने , प्रतिद्वंदी को दबा कर रखने के खेल में पुलिस का दुरुपयोग किया जा रहा है . अधिकारियों की नियुक्ति से लेकर ट्रांसफर और सज़ा से लेकर ईनाम देने तक में नीति की जगह मर्ज़ी से काम लिया जाना आम होता जा रहा है.