आंखें खोल देने वाले मज़ेदार किस्सों से भरपूर है ‘ दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा ‘

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दिल्ली उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त जस्टिस एस एन ढींगरा पुस्तक के लेखक एल एन राव के साथ.
पूरा देश  जानता है कि पुलिस देश के किसी भी सूबे की क्यों न हो, इसमें भ्रष्टाचार के तत्व भरपूर मिलते हैं . अवैध उगाही यानि  ब्लैकमेलिंग से लेकर काम करने के बदले  रिश्वतखोरी ‘चरम’ पर हमेशा मौजूद मिलती है.  सब जानते हैं. फिर कुष्ठ रोग जैसी इस  बीमारी को खत्म क्यों नहीं किया जाता जिससे पूरा खाकी समुदाय बदनाम होता है और ईमानदार पुलिकर्मियों को भी इसी छवि वाले चश्में से देखा जाता है ? ऐसे ही कुछ सवालों का जवाब देती है   “दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा”. एक ऐसी किताब जिसे  पुलिस महकमे में दरोगा के ओहदे से करियर शुरू कर डीसीपी ( deputy commissioner of police ) के मुकाम तक पहुंचे  एल एन राव ने लिखा है. पूरा नाम है लक्ष्मी नारायण राव और उन्हें सेवा करने का मौका मिला देश की राजधानी दिल्ली में.
हाल ही में राजधानी दिल्ली में इस किताब का विमोचन किया गया. हालांकि डेढ़ अरब वाले देश में बहुतों को एल एन राव का नाम नहीं भी पता होगा लेकिन सैकड़ों ऐसे भी हैं  जो उनसे या उनके काम से वाकिफ हैं . एल एन राव कर्मचारी चयन आयोग ( staff selection commission )  यानी एसएससी से पास हुए  दिल्ली पुलिस के पहले बैच के तकरीबन 100 से ज्यादा उपनिरीक्षकों ( sub inspector) में से एक हैं लेकिन डीसीपी के ओहदे तक पहुंचने वाले एकमात्र एकमात्र अफसर .
तकरीबन 37  बरस के  दिल्ली पुलिस की सेवा  में एल एन राव का ज़्यादातर वक्त इसके स्पेशल सेल में ही बीता. यह प्रकोष्ठ आतंकवादियों और ऐसे खतरनाक गिरोहों से निपटने के लिए बनाया गया था जिनका मजबूत नेटवर्क देश विदेश में फैला था.   ‘दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा’ के सह-लेखक हैं  वरिष्ठ खोजी पत्रकार संजीव चौहान जिन्होंने दिल्ली में  विभिन्न समाचार पत्रों, टेलिविज़न चैनलों , पत्रिकाओं आदि मुख्यधारा के  मीडिया में काम करते हुए क्राइम रिपोर्टिंग की  . इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि 37 साल की पुलिस की नौकरी के बाद एल एन राव की अगर यह पहली किताब है, तो 37 साल के ही पत्रकारिता जीवन-काल में संजीव चौहान द्वारा भी लिखी गई उनकी यह पहली पुस्तक है. 224 पेज की इस पुस्तक में 24 अध्याय हैं. किताब का हर अध्याय पुलिस की नौकरी के बदनाम-अंधेरे कुएं, या कहिए बदनाम आड़ी-तिरछी संकरी गलियों की सच्चाई को करीब से दिखाने की कोशिश है.
लेखक का कहना है कि किताब का मकसद  पुलिस की छवि बिगाड़ने या सुधारने का नहीं है.  “दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकत्था” वास्तव में लेखक की निहायत निजी जिंदगी के अनुभवों का दस्तावेज है.
किताब में वर्णित  एल एन राव के बचपन का वह किस्सा मजेदार है जब स्कूल जाते वक्त वे रास्ते में थाने के एंट्री गेट  पर संतरी ड्यूटी में तैनात  सिपाही को देख कर ही घबरा जाया करते थे . उनमें इस दृश्य का ऐसा डर समाया कि स्कूल जाने-आने का  रास्ता ही हमेशा के लिए बदल डाला . ऐसे बालक का पुलिस विभाग में भर्ती होना और फिर खतरनाक अपराधियों से लोहा लेते हुए  एनकाउंटर स्पेशलिस्ट में तब्दील हो जाना सच में किसी के लिए भी हैरान कर देने वाल या फ़िल्मी कहानी सा लगता है . एल एन राव इसे विधि का विधान  मानते हैं. एल एन राव ने  1994-1995 में उत्तर प्रदेश  के 7 लाख के इनामी मोस्ट वॉन्टेड क्रिमिनल बृजमोहन त्यागी और दिल्ली के मोस्ट वॉन्टेड अनिल मल्होत्रा के साथ, दिन-दहाड़े हुई खूनी मुठभेड़ में गोलियों की ऐसी बौछार सही जिनमें से 3 गोलियां उनको लगी . राव मौत को मात देकर लौटे और साथ ही बारी से पहले तरक्की भी मिली .  दिल्ली के राजा गार्डन चौराहे पर हुए उस एनकाउंटर को मौजूद जनता (तमाशबीन चश्मदीद) किसी मुंबइया फिल्म की शूटिंग समझ रही थी.
कम ही लोग जानते है कि एल एन राव ने बैंक की नौकरी भी की थी. लेकिन ज्यादा वेतन वाली वह नौकरी छोड़कर राव ने दिल्ली पुलिस में थानेदार की कम वेतन वाली नौकरी करने को तरजीह दी . खाकी पहनने के शुरूआती दिनों में हुए अनुभवों व महकमे के अंदर की बातों को बेबाकी से उन्होंने बयान किया है. मसलन, नई-नई थानेदारी में उन्हें कैसे होटल-गेस्ट मालिक द्वारा उनके बिना मांगे हुए ही मंथली (हर महीने की चौथ-वसूली) का “लिफाफा” पकड़ाया गया था. तब तक पुलिस में फैली ‘लिफाफा-कुरीति’ से पूरी तरह अनजान एल एन राव होटल-गेस्ट हाउस मालिक के हाथ में मौजूद लिफाफा देखकर पूछने लगे कि, यह किस बात का लिफाफा है क्या है इसमें? सवाल के जवाब में मालिक बोला, “साहब हमारे इलाके में जो भी डिवीजन अफसर थानेदार आता है, उसे हम खुश रखने के लिए उसके बिना मांगे ही हर महीने यह लिफाफा देते हैं.”
उस “लिफाफा कांड” का भी ‘आत्मकथा’ में विस्तृत रूप में जिक्र किया गया है. जिसमें डीसीपी एल एन राव आगे बताते हैं कि, “दरअसल वह लिफाफा इलाके के पुलिस डिवीजन अफसर को इसलिए बिना मांगे ही दिया जाता था ताकि, पुलिस वाले इलाके के होटल-गेस्ट हाउस में होने वाले किसी भी संदिग्ध-गैर-कानूनी या बेजा काले-धंधे पर नजर उठाकर देखने की हिमाकत न कर सकें. एल एन राव को परोसे जा रहे उस पहले लिफाफे में 500 रुपए थे.
बकौल एल एन राव, “जब मैंने वह लिफाफा लेने से इनकार कर दिया. तो इलाका गेस्ट हाउस मालिकों को लगा कि शायद 500 महीना एक गेस्ट हाउस से मिलने वाली वह नजराने की रकम मुझे (तब के नए नए दारोगा बने) कम लग रही होगी. इसलिए मैंने नहीं ली. तो उन सबने मिलकर हर गेस्ट हाउस के लिफाफे में रकम दोगुनी यानी 1000 रुपए प्रति लिफाफा कर दी. चूंकि मेरा तो कम या ज्यादा रकम से कोई मतलब ही नहीं था. सो मैंने वह लिफाफा नहीं पकड़ा.
हां, एक नया नया थानेदार होने के नाते इतना मेरा जरूर माथा ठनक गया कि, इन गेस्ट हाउस में कुछ न कुछ गड़बड़ काम तो होता है. मैंने अपने मुखबिर जब उन गेस्ट हाउस वाले इलाके में छोड़े तो, एक दिन पता चला कि उस जमाने का देश का सबसे बड़ा गोल्ड स्मगलर उन्हीं में से एक गेस्ट हाउस में आकर रुकता है. बाद में मैंने उस गोल्ड स्मगलर  को जब पकड़ा तो करीब 40 किलोग्राम वजन के सोने के बिस्कुट उससे जब्त किए. वह सोना दुबई से तस्करी करके दिल्ली लाया गया था. तस्कर ने कहा भी कि मैं और मेरे साथ मौजूद बाकी पुलिस टीम 40 किलोग्राम सोना लेकर, उसे छोड़ दे. मगर हमने वह तस्कर और उससे 40 किलोग्राम सोना छोड़ने के लिए नहीं, सोना जब्त करके तस्कर को गिरफ्तार करने के लिए पकड़ा था.”
“दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा” का यूं तो हर अध्याय की पुलिस के अंदर की कहानियों की ‘पोल-पट्टी’ खोलता है. यहां लेकिन एक उस चैप्टर का जिक्र करना जरूरी है जिसमें एल एन राव लिखते हैं कि, “पुलिस विभाग में मुखबिर  तंत्र ( informer network ) की अहम भूमिका होती है. पुलिस मानती भी है कि मुखबिर उसकी रीढ़  हैं जिसके बिना का काम मुमकिन ही नहीं  है.  राव ने लिखा है कि  एक बार उनके मुखबिर  मेरे  को सरोजनी नगर थाने के तब  के एसएचओ ने , उनके (राव के )  गुडवर्क से चिढ़ कर , ड्रग्स के फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया. ऐसे में तब एस आई रहे एल एन  राव ने  पूरा वाकया जिले के डीसीपी को बताया मगर डीसीपी  मामले को दबा कर बैठ गए. तब राव अपने मुखबिर  को उस फर्जी मुकदमे से बचाने के लिए खुद ही अदालत में दिल्ली पुलिस के खिलाफ ही एप्लीकेशन लेकर पहुंच गए . जज भी हैरान हुए  कि दिल्ली पुलिस का अफसर ही अपनी पुलिस के खिलाफ अदालत में  खड़ा है. खैर , बाद में उस मुखबिर पर लगाया गया केस  फर्जी निकला और  कोर्ट ने  से बरी भी किया.
किताब में ऐसा नहीं है कि लेखक ने अपनी सिर्फ तारीफ लिखी  और शेखी ही बघारी है. एक जगह वे लिखते हैं कि कैसे उन्हें एक डीसीपी ने स्पेशल सेल में रहते हुए एक दिन मीटिंग से ही गेट-आउट कर दिया था. यह कहते हुए कि मैं स्पेशल सेल में काम करने की काबिलियत नहीं रखता हूं. कुछ समय बाद वही डीसीपी दिल्ली पुलिस महकमे में मेरे मुखबर नेटवर्क का लोहा मानकर, मेरी तारीफ करते नहीं थक रहे थे. राव कहते हैं , ” दिल्ली पुलिस के एक ऐसे भी डीसीपी थे जो मेरे पीछे हाथ धोकर सिर्फ इसलिए पड़ गए कि जब उनकी पत्नी सरोजनी नगर मार्केट में शॉपिंग  करने पहुंची. तो उस खरीदारी का बिल मैंने अपनी जेब से नहीं भरा. वह बिल ले जाकर मैंने जब डीसीपी को थमा दिया, तब वह डीसीपी हाथ धोकर मेरा उत्पीड़न करने में जुट गए.”
जिस दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल में नौकरी करने की लालसा आज भी हर पुलिसकर्मी-अफसर की होती है. उसी दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल में अंदरखाने की उठा-पटक, घटिया राजनीति से एल एन राव इस कदर खफा कहिए या ऊब चुके थे कि, उन्होंने स्पेशल सेल में न रहने की कसम खा ली. जब दिल्ली पुलिस मुख्यालय ने उन्हें स्पेशल सेल से ट्रांसफर नहीं किया तो कुछ वक्त के लिए एल एन राव विदेश (कोसोवो) में पुलिस ट्रेनिंग पर चले गए.
आत्मकथा में यूं तो लेखक ने अपनी हर अच्छाई-बुराई खोलने की कोशिश की है. इसी क्रम में “दारोगा से डीसीपी एल एन राव आत्मकथा” में लेखक के हवाले से सह-लेखक संजीव चौहान लिखते हैं कि, “कैसे स्पेशल सेल में डीसीपी एल एन राव का उस समय का एक समकक्ष सहायक पुलिस आयुक्त (एसीपी, जो अब इस दुनिया में नहीं है), अंडरवर्ल्ड डॉन के गुर्गों के साथ मिलकर ‘अवैध-उगाही-वसूली’ का अड्डा चलाता था. यह बात जब एल एन राव ने अपने उस वक्त के डीसीपी को तुरंत ही बताई तो उस आरोपी एसीपी के खिलाफ कोई एक्शन लेने की बात तो दूर की कौड़ी हो गई. दब्बू किस्म के उस डीसीपी (पुलिस उपायुक्त) ने कड़वी और मामला खुलने पर दिल्ली पुलिस को बदनाम कर डालने की पूरी-पूरी संभावना वाले उस कांड में, उस एसीपी की शर्मनाक हरकत को जान-बूझकर  दुम दबाकर दबाने में ही मदद की. बाद में उस बेहद शर्मनाक कांड की लिखित शिकायत भी एल एन राव ने ‘ऊपर’ तक की. मगर परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा.
आत्मकथा के एक चैप्टर में दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल के डीसीपी एल एन राव लिखते हैं, “एक बार मैंने दिल्ली पुलिस आयुक्त के विशेष निर्देश पर देश के सबसे बड़े कॉलगर्ल सरगना कंवलजीत वालिया को गिरफ्तार कर लिया. बाद में उसी कंवलजीत वालिया के कहने पर उन्हीं पुलिस आयुक्त ने मेरा ट्रांसफर दक्षिण दिल्ली जिला स्पेशल स्टाफ से ऑपरेशन सेल (स्पेशल ब्रांच) कर दिया. भला हो तत्कालीन डीसीपी पी एस बरार का जिन्होंने उस वक्त के पुलिस आयुक्त वेद मारवाह से कहा कि,  “राव का इनफॉर्मर -नेटवर्क जबरदस्त है. लिहाजा हम उसे अपने जिला स्पेशल स्टाफ से ट्रांसफर पर कहीं और नहीं भेजेंगे.” वरना एक कॉलगर्ल सरगना मेरे ऊपर भारी तो पड़ ही गया था. “