बात उन दिनों की थी जब मै 9वी कक्षा मे थी. गांव में जहां हमारा निवास हुआ करता था , पापा एक हिंदी माध्यम के प्राइमरी स्कूल में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत थे. वहां पर 5 वी कक्षा के बाद कोई अच्छा स्कूल न होने के कारण दीदी , भैया और मुझे तीनों को ही पापा ने गांव से बाहर इंदौर या उज्जैन पढ़ने भेजा. जब मैं नवी कक्षा में आई तब पहले से ही दीदी इंदौर के एक गर्ल्स हॉस्टल ( girls hostel ) से 12वीं करके निकल चुकी थी. अब बारी मेरी थी हॉस्टल में रहने की.
एक दो बार जब मै दीदी के हॉस्टल में गई थी तो बड़ा अच्छा सा लगा था . सब बड़ी-बड़ी दीदीयां, इकट्ठी इतने मजे से रहती थी. सो , नवी कक्षा में मेरा भी नंबर लगा और मैं भी इस हॉस्टल में , जहां पर दीदी थी , चली गई. जब गई तो मुझे हॉस्टल का ऑफिस वाला कमरा जिसको हम ऑफिस रूम कहते थे , रहने को मिला . मैंने अपना सारा सामान उस कमरे में जमा लिया. उसके बाद में जब सभी लड़कियां आ गई तो सभी को रूम अलॉटमेंट हुए. तो मेरा कमरा थर्ड या फोर्थ अलॉट हुआ था लेकिन अब मेरी और सब लोगों से पहचान हो गई थी इसलिए मुझे दूसरे कमरे में जाने का मन नही था. ना ही अपनी सहेलियों को छोड़ने का मन था . सो , मैं फर्स्ट रूम में जहां मेरी सहेलियों को कमरा मिला था उसमें डबल बेड में चली गई .

हॉस्टल मे रहते – रहते यह जाना कि कैसे आपको बहुत सारी सहेलियां एक साथ मिल जाती है और बहुत मौज-मस्ती से कैसे आप जीवन निकाल लेते है. उसमें सुबह 4:00 बजे से लेकर रात के 12:00 तक या 11:00 या 10:00 बजे (आज तो मुझे याद भी नहीं है) का समय सहेलियों के साथ निकलता. खाना-पीना, स्कूल जाना, स्कूल भी हमारा उसी कैंपस में हुआ करता था, बहुत मजे से समय निकलता था. शुरुआत के दिन कब निकल गए, पता ही नही चला, लेकिन धीरे-धीरे समझ में आया कि हॉस्टल में बहुत कुछ करने की आवश्यकता थी. जैसे कि दूसरी सहेलियां, जिनके नेचर अलग-अलग होते थे, उनकी पसंद नापसंद अलग-अलग होती थी, उनके साथ भी अपने को एक सामंजस्य बैठाना पड़ता था.
खैर, समय बीतता गया और क्लास आगे बढ़ती गई. 9वीं हुई, 10वीं हुई, 11वीं हुई अब 12वीं का साल आ गया . फिर 12 वीं भी हो गई . 12वीं होने के बाद सारी सहेलियां इधर-उधर हो गई. मैं कॉलेज में गई, फिर सिविल सर्विसेज की तैयारी करने लगी गयी. अचानक से बहुत दिनों बाद फिर से उन सहेलियों से बातचीत शुरु हुई और उनसे मिलना हुआ. सभी की शादी हो गई, कुछ के बच्चे इतने बड़े हो गए, कि कॉलेज मे पहुंच गए.
अब पिछले कई सालों से हम लगातार संपर्क मे है. अब फिर से कुछ हॉस्टल्स की बातें हैं कुछ यादें है, कुछ लड़ाइयां है, कुछ बेवकूफियां है जो सभी को याद आती है . अभी इस बार का जो फ्रेंडशिप डे (friendship day ) था वह शायद बहुत ही खास था. सभी सहेलियों ने हॉस्टल की जितनी भी लड़कियां थी, जिन जिन को जो भी जानते थे सब एक-एक करके हम सभी ने व्हाट्स ऐप (whatsapp) पर ग्रुप में जोड़ लिया. शुरुआत में कुछ दो-तीन सहेलियों से बना ग्रुप आज 15 -20 सहेलियां का हो गया. अब हम सब लोग मिल गए हैं. इतना अच्छा लगता है, कोलाज बनाकर देखना, बातें करना. सही मायनों में तो हमारा जो हॉस्टल , सात कमरे का हॉस्टल नहीं बल्कि सात कमरों का घर था जिसमें अलग-अलग कमरों में हम लोग रह रहे थे .
अभी जब मुझे सब याद आता है तो मुझे बहुत ही हंसी आती है खुद पर ही …. कि कैसे हम लोग बहुत सी बेवकूफियां करते थे. वहां पर कुछ ऐसा था कि बहुत काम भी करना पड़ता था, जैसे कभी चूल्हे के सामने बैठकर आपको रोटियां बनानी पड़ती थी. कभी दाल चावल बीनना, कभी डायनिंग हॉल मे सभी को खाना सर्व करना और सबसे मजेदार बात होती थी शनिवार और रविवार की ड्यूटी. जब शनिवार को शाम को पिक्चर आती थी और इतवार शाम को भी पिक्चर आती थी. और अगर ऐसे में आपकी ड्यूटी लग गई तो बस इतनी झुंझलाहट होती थी कि हम पिक्चर छोड़े या हम ड्यूटी करें लेकिन काम करना तो पड़ता था. आख़िरकार पिक्चर ही छुट जाती थी.

आज भी याद आता है जब संडे के दिन सुबह टीवी में प्रोग्राम आते थे. एक ही टीवी हुआ करता था ऑफिस मे. सब लोग टीवी देखते रहते थे और उस समय दाल-ढोकली नाश्ते मे बनती थी. वह स्वाद आज तक मेरे जुबान पर टिका हुआ है. वाकई इतनी अच्छी यादें है, इतने अच्छे पल है जो हम लोगों ने उस सात कमरों वाले घर में निकाले है. और आज जब हम कोलाज में, या वीडियो में एक दूसरे को देखते हैं तो इतना अच्छा लगता है कि शब्द कम पड़ते है. वो सात कमरों का घर सच मे हमें बहुत याद आता है . वही 7 कमरों का घर, जिसमें अगर अभी जाने को बोल दिया जाए तो शायद कोई भी खुद को नहीं रोक पायेगा. सच मे वो सात कमरों का घर, हमारा घर था, जो याद आता है आज भी और शायद याद आएगा हमेशा .

भले मै सोशल मीडिया को मैं कितनी ही गालियां दे दूं लेकिन सच तो है कि व्हाट्सएप और फेसबुक (facebook ) के माध्यम से हम सभी एक साथ जुड़े हुए हैं . रोज तो एक-दूसरे से बात करना संभव नहीं है लेकिन मैसेज के माध्यम से एक दूसरे की वीडियो के माध्यम से, हॉस्टल की पुरानी फोटो के माध्यम से हम लोग एक दूसरे से सही मायने में जुड़ पाते हैं. … और ये सारा आदान-प्रदान होता तो है सोशल मीडिया से ही है.
कहते है ना कि कुछ दाग अच्छे होते है. तो चाहे जो भी है एक दूसरे से बंधे हुए हैं एक दूसरे को याद करते हैं एक दूसरे के संपर्क में है. सच में वह हमारा सात कमरों का घर जीवन पर्यंत हमारी यादों में रहेगा और हमारे जीवन में भी….
( यह संस्मरण मध्य प्रदेश पुलिस में वर्तमान में सहायक महानिरीक्षक श्रद्धा जोशी की फेसबुक वॉल से उनकी स्वीकृति से लिया गया है )